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Showing posts from 2020

"कही देबे सन्देस" छत्तीसगढ़ी सिनेमा का उदय चलचित्र

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  छोलीवुड का अर्थ छत्तीसगढ़ राज्य, मध्य भारत या छत्तीसगढ़ी भाषा के सिनेमा उद्योग से है । इसकी स्थापना 1965 में पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म कही देबे संधेश ("इन ब्लैक एंड व्हाइट") की रिलीज के साथ की गई थी। 1965 में मनु नायक द्वारा निर्देशित और निर्मित पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म कही देबे संदेश ("ब्लैक एंड व्हाइट") प्रदर्शित हुई। यह प्रेम की कहानी थी और कहा जाता है कि पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने फिल्म देखी। विजय कुमार पांडे द्वारा निर्मित, 1971 में निरंजन तिवारी निर्देशित घर द्वार है। हालांकि, दोनों फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन नहीं किया और निर्माताओं को निराश किया। उसके बाद लगभग 30 वर्षों तक किसी भी छत्तीसगढ़ी फिल्म का निर्माण नहीं हुआ ।  कही देबे संदेश 1965 की भारतीय छत्तीसगढ़ी -भाषाई फिल्म है, जिसे मनु नायक द्वारा लिखित, निर्देशित और निर्मित किया गया है। यह 1965 में रिलीज़ हुई और मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ राज्य बनने से पहले ही यह पहली चॉलीवुड या छत्तीसगढ़ी फिल्म बन गई। फ़िल्म की विषयवस्तु अस्पृश्यता और जातिगत भेदभाव जैसे सामाजिक व समकालीन मुद्दों पर केंद्र...

गुजराती रंगमंच

1850 के आसपास हमें गुजराती नाटकों की प्रस्तुतियों का दौर शुरू होता दिखने लगता है। उससे पहले तक गुजरात में लोककला व लोकनाट्य भवई की परंपरा देखने को मिलती है। गुजराती नाटक को पनपने का परिवेश यूँ तो पारसी रंगमंच ने ही बनाया। जो किसी समय ईरान से आकर भारतवर्ष के पश्चिम तट पर आकर बस गए थे। मूल रूप से व्यावसायिक प्रवृत्ति होने के कारण इनका बहुत से देशों से सम्पर्क होना लाजमी था। साथ ही हर विषय में अर्थलाभ ढूंढना इनका स्वभाव बन गया था। ऐसे में ये रंगमंच को भी व्यवसाय के रूप में अपनाकर अपने अनुसार गढ़ रहे थे। ज्यादा से ज्यादा मुनाफे ले लिए अधिक से अधिक प्रदर्शन करना जारी रखते। ऐसी ही किसी टोली के हरिश्चंद्र नाटक को देख गांधी जी तक प्रभावित हो गए थे, जिसका असर इतना था कि वो अपने जीवन में सत्य' को अपनाने के लिए अडिग रहे।  फलस्वरूप 1875 में नाटक उत्तेजक मण्डली की स्थापना बम्बई में हुई। इस मण्डली ने रणछोड़ जी भाई, उदयराम, नर्मदाबाई, खुसरो कावस जी के गुजराती नाटकों का प्रदर्शन आरम्भ किया।  1865 में नगर के युवाओं ने मिलकर गुजराती रंग मंडल की नींव रख दी। वहीं 1869 में सारस्वत ब्राह्मणों ने और 1...

भारतीय सिनेमा का अनन्य कथाकार 'शरतचंद्र'

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15 सितंबर 1876 को जन्मे श्री शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय 20 वीं शताब्दी के प्रमुख बंगाली उपन्यासकार और लघु कथाकार हैं। ऐसे में हम इस विशेष कथाकार के शार्द्ध शतवर्ष जयंती मनाए जाने के द्वार पर खड़े हैं।ऐसे में उनके साहित्यिक सेवाओं के साथ फिल्मों के उत्थान में उनकी कृतियों का क्या योगदान रहा है देखें।  सिनेमा का जन्म 1895 ई में लुमियर बन्धु के सौजन्य से भले हुई हो। पर भारत में उसे चलना दादा साहब फाल्के ने सिखाया तो बोलना आर्देशिर ईरानी साहब ने। जब सिनेमा ने बोलने की कला सीख ली तो जरूरत पड़ी किस्सों-कहानियों की। ऐसे में न्यू थिएटर के प्रमथेश बरुआ साहब ने जिस कथाकार की लंबी कहानी चुनी, वो थे भारत के अमर कथाकार श्री शरतचंद्र चट्टोपाध्याय। जिनकी कहानियां जैसे भारतीय सिनेमा के लिए वरदान हो। 'बिराज बहु", "मंझली दीदी", "वैंकुठेर विल (वैंकुठ का वसीयतनामा) पर 1962 में राष्ट्रपति सम्मानित फ़िल्म 'सौतेला भाई' का निर्माण हुआ। उनके उपन्यास "परिणीता" पर उसी नाम से दो बार फ़िल्म बानी।  इन कहानियों, उपन्यासों से ये बात तो सामने आ ही जाती है कि मानव मन विशेषतः स्त्री मन ...

फर्स्ट पर्सन - ऋतुपर्णो घोष

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 "पहली बार किसने बातें करना सिखाया था, याद नहीं। काले रंग के ऊपर लाल रंग से पंक्षियों की आकृतियां बनी हुई घर पर एक बेडकवर रहा करती थी। उसे देख पहले पहल पंक्षी पहचानना सीखा। तब पंक्षी नहीं कह पाता था। कहता था 'कपि'। पहला गीत सिखाया मौसी ने। 'आलो आमार आलो ओगो' नहलाने से पहले तेल मलते मलते। 'पॉथेर पाचाली' पहली दफा खरीदकर दी बुआ ने। तब बुआ की शादी भी न हुई थी। पिताजी की सबसे छोटी बहन श्याम वर्ण, बालों की चोटी मोटी। अपु-दुर्गा की कहानी को पढ़कर लगा, बुआ मेरी दीदी होती तो अच्छा होता। फाउंटेन पेन से लिखना पहली बार पिताजी ने सीखाया। महाभारत पढ़ने की विधि भी। राजशेखर बसु की महाभारत।  शाम को अपने होमवर्क निपटा कर हम तीन लोग बैठ जाते।  बाबा पढ़ते।  दादी अम्मा और मैं सुनता। बाबा ने ही बताया था कि कैसे अजायबघर को देखा जाता है। उत्तरभारतीय मंदिरों से दक्षिणभारतीय मंदिरों के फर्क को समझाया था। उन्होंने ही बताया था U के बगैर Q अक्षर से अंग्रेजी शब्द निर्मित नहीं होता।   बताया था अंग्रेजी वर्णों को दरअसल रोमन कहा जाता है। माँ को गाना नहीं आता था। इसलिए 'संचयिता' पढ़कर म...

चुनिबाला देवी : पॉथेर पांचाली की इंदिर ठाकुरुन

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  बकौल सत्यजीत रे - जिसप्रकार महानायक उत्तम कुमार के उपलब्ध न होने पर "नायक" फ़िल्म को बनाते ही नहीं उसीप्रकार चुनिबाला देवी के न मिलने पर "पॉथेर पाचाली ( राह का गीत )" बनाना सम्भव ही नहीं हो पाता। सत्यजीत रे साहब की एक खोज ही कही जाएगी अभिनेत्री चुनिबाला देवी। रे साहब की "पॉथेर पांचाली" फ़िल्म का चरित्र विशेष इंदिर ठाकुरुन भूमिका को निभाने वाली अभिनेत्री "चुनिबाला देवी" एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पहली भारतीय अभिनेत्री हैं। जिसकी खबर सम्भवतः हममें से गिने चुने लोगों को ही ज्ञात होगी! विदुषी चुनिबाला देवी की उन अनजान बातों पर चर्चा करना बहुुुत जरूरी है।  बात उस समय की है जब सत्यजीत रे साहब ने "पॉथेर पांचाली" फ़िल्म के लिए हरिहर, सर्बजया, अपु, दुर्गा आदि तमाम चरित्रों के लिए अभिनेता / अभिनेत्रियों के निर्धारण कर चुके थे लेकिन इंदिर ठाकुरुन चरित्र के लिए जिस प्रकार की अभिनेत्री की आवश्यकता है, वो मिल ही नहीं रही। चरित्रानुरूप कद काठी की एक वृद्धा अभिनेत्री के न मिल पाने पर इस फ़िल्म का निर्माण सम्भव ही नहीं। करे तो करे क्या! उस किरदार के...

"सुनील दत्त" भारतीय सिनेमा में एक विशिष्ठ स्थान रखने वाले कलाकार

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"सुनील दत्त" भारतीय सिनेमा में एक विशिष्ठ स्थान रखने वाले कलाकार सुनील दत्त साहब का आज जन्मदिन है। उनको याद करते हुए ..... 1955 में भारत मे प्रदर्शित सैगल प्रोडक्शन के बैनर तले बनने वाली फिल्म थी रेल्वे प्लैटफॉर्म। यूं तो फ़िल्म की चिरपुरातन कथा अमीरी-गरीबी थी। फिर भी कई मायनो में उस समय के मद्दे नजर आधुनिक कही जा सकती है।त्रिकोणी प्रेम कथा में एक राजकुमारी का दिल एक गरीब आदमी पर आ जाता है। कथा रमेशसैगल की लिखी हुई है। सैगल साहब ने निर्देशन भी किया। फ़िल्म के आरम्भ में ही जहां टाइटल और क्रेडिट के संग रेल की पटरी के गुजरते जाने से होता है। इस प्रकार का यह सम्भवतः भारत का पहला दृश्य है। रेलवे ट्रैक के ऊपर चलता ट्रेन सभी चीजों को पीछे छोड़ती हुई बढ़ रही है। कैमरे को ट्रेन के एकदम आखिर में टिका कर फिल्मांकन किया गया है। कैमेरा निर्देशन द्रोणाचार्य जी का था। जो पहलीबार में ही दर्शकों में कौतूहल और आश्चर्य का संचार करता है। उक्त दृश्य का प्रभाव भारतीय सिनेमा पर इतना रहा कि उसके बाद बहुत से फिल्मकारों ने उसे दोहराया। यहां तक कि भारतीय सिनेमा के महान निर्देशकों में से एक मृ...

प्रसंग : मिनर्वा थियेटर, कोलकाता

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'मिनर्वा' नाम से पश्चिम बंगाल के कोलकाता शहर में एक नाट्यगृह है। इस हॉल के आरम्भिक दौर में बंगाल के नाट्यविद गिरीश घोष, अमृत बसु, अर्धेन्दू शेखर मुस्तफी जैसे बड़े कलकोरों का जमावड़ा रहता था। नोटी बिनोदिनी के प्रयास से बनी स्टार थियेटर की प्रस्तुतयों से बड़ी प्रतिस्पर्धा रहती। एक बार स्टार थियेटर में चल रहे #द्विजेन्द्र लाल राय के नाटक को मिनर्वा के कलकोरों ने मात्र 5 दिन के अभ्यास पर उतार दिया। दोनो हॉल में एक ही नाटक चलने पर भी दर्शक का जमावड़ा किसी में कम न हुआ। किसी किसी ने दोनों हाल की प्रस्तुति को इसी उत्साह से देखा कि ये क्या करते हैं। नाट्य सम्राट गिरीश चन्द्र घोष की एक काव्य रचना 'हल्दीघाटी का युद्ध' है। एक समय था जब सबकी जुबान पर ये उसी तरह से चढ़ा हुआ था, जिस प्रकार से हरिवंश राय बच्चन जी की 'मधुशाला'। स्टार थियेटर के सुयोग्य अध्यक्ष नाट्याचार्य अमृत बाबू, राणाप्रताप नाटक में गिरीश बाबू के उक्त कविता को विभिन्न पत्रों द्वारा युद्ध के वर्णन को व्यक्त करने के उद्देश्य से प्रयोग कर दिया। फिर क्या था, पहली प्रस्तुति होते ही नाट्य रचनाकार द्विजेन्द्र लाल र...

1980-90 दशक की फिल्में और उनका गीत संगीत

1980-90 दशक की फिल्में और उनका गीत संगीत संग्रह और सम्पादन जयदेव दास 1980 --------- द बर्निंग ट्रेन रेलवे इंजीनियर, विनोद, भारत की सबसे तेज़ यात्री ट्रेन, सुपर एक्सप्रेस को हरी झंडी देता है। लेकिन उसका प्रतिद्वंद्वी, ट्रेन में बम लगा देता है और विस्फोट के कारण ट्रेन को रोकना मुश्किल हो जाता है। रिलीज़ दिनांक: 20 मार्च 1980 (भारत) निर्देशक: रवि चोपड़ा संगीत: राहुल देव बर्मन पल दो पल का साथ हमारा मोहम्मद रफ़ी, आशा भोसले वादा है वादा किशोर कुमार, आशा भोसले मेरी नजर है तुझ पे आशा भोसले पहली नजर में हमने अपना दिल किशोर कुमार, मोहम्मद रफ़ी, आशा भोसले, ... किसी के वादे पे क्यों ऐतबार आशा भोसले तेरी है जमीन, तेरा आसमान पद्मिनी कोल्हापुरे, पूर्णिमा कर्ज मोंटी को अपने पिछले जीवन के बारे में चौंकाने वाला सच पता चलता है कि उसकी पैसा ऐंठने वाली बीवी ने ही उसकी हत्या की थी और उसके परिवार को बेघर कर दिया था। वह चीजें सही करने का फैसला करता है। रिलीज़ दिनांक: 11 जून 1980 (भारत) निर्देशक: सुभाष घई संगीतकार: प्यारेलाल रामप्रसाद शर्मा एक हसीना थी किशोर कुमार कमाल...

पद्मश्री निरंजन गोस्वामी

**पद्मश्री निरंजन गोस्वामी** मूक अभिनय के शलाखा पुरुष के अनुभवों को महाराष्ट्र की संस्था ब्लैक सॉइल ने संजोया है। अभी अभी उसका 'प्रोमो' जारी किया गया। जिसमें निरंजन दादा अपने अनुभवों की झोली से एक एक मोती निकलते दिख रहे हैं। इस साक्षात्कार निर्माण का निर्देशन डॉ सुरभि बिप्लव ने कुशलता से किया है। सिनेमेटोग्राफर राजदीप जी ने इसके छायांकन का भार ही नहीं वहन किया अपितु जटिल तकनीकी पक्ष को भी निखारा है। कुछ ही दिनों में पूरी कृति सबके सामने होगी। हम आशान्वित व प्रतीक्षारत हैं। निरंजनगोस्वामी निरंजन गोस्वामी भारतीय माइम कलाकार और मंच निर्देशक हैं, जिन्हें भारत में माइम कला रूप को आगे बढ़ाने का श्रेय दिया जाता है । वह इंडियन माइम थिएटर के संस्थापक हैं , जो एक समूह है, जो 'मूक अभिनय" की कला को बढ़ावा देता है । उन्होंने अपने करियर की शुरुआत 1960 के दशक के अंत में बहुरूपी के साथ की थी, जो बंगाल की स्थानीय थिएटर ग्रुप है, लेकिन बाद में रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय से थिएटर कोर्स में शामिल हुए। उन्होंने माइम को बढ़ावा देने के लिए इंडियन माइम थिएटर की स्थापना की तथा भार...

film editing

आज हम #फ़िल्म सम्पादन में '#निरंतरता' बनाये रखने को समझेंगे। उदाहरण के लिए हमने #अजयदेवगन अभिनीत व #स्वास्थ्य_विभाग_भारत_सरकार द्वारा निर्मित #लघुचित्र '#आरोग्यसेतु' की मदद ली है (वर्तमान समय में जिस महामारी से हम जूझ रहें हैं, उससे लड़ने के लिए यह एप कारगर साबित होगा)। जिसमें देवगन साहब ने दोहरी #भूमिका का निर्वहन किया है।  फ़िल्म की निरंतरता को बनाये रखने के लिए इस फ़िल्म में जिन व्याकरणों को ध्यान में रखा गया है, उन पर हम आज चर्चा करेंगे। सम्पादन में निरंतरता बनाए रखने के लिए #सम्पादक को दो शॉट्स को जोड़ना या काटना इस प्रकार से होता है कि दर्शकों का ध्यान भंग न हो। कथाचित्र को वो बिना किसी बिघ्न बाधा के सिर्फ देखे ही नहीं उसमें लीन होता जाए कि कथा के संग बहता जाए कि वह नैसर्गिक लगे। कोई जर्क न हो। यही निरन्तरता का #तत्व है। यशार्थ मंजुल सर (Yasharth Manjul) ने अपनी बात को आगे बढाते हुए कहा कि फ़िल्म तकनीक में 'निरन्तरता सम्पादन continuity editing' कोई #सिद्धांत नहीं बल्कि एक #व्याकरण है। उक्त लघु चित्र में भी इस व्याकरण का प्रयोग बखूबी दिखता है। Conti...

कृतियों पर आधारित हिंदी फिल्में

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आज शेक्सपियर पुण्यतिथि है ************************** उनकी कृतियों पर आधारित हिंदी फिल्में मकबूल (2004) --------- अंडरवर्ल्ड डॉन के एक वफादार गुर्गे, मकबूल को अपने बॉस की प्रेमिका, निम्मी से प्यार हो जाता है। निम्मी, मक़बूल को, डॉन को मारकर अगला डॉन बनने के लिए उकसाती है। रिलीज़ दिनांक: 30 जनवरी 2004 (भारत) निर्देशक: विशाल भारद्वाज मुख्य कलाकार: पंकज कपूर, तब्बू व इरफ़ान खान पुरस्कार: राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार - सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता, ज़्यादा संगीतकार से फिल्मकार बने विशाल भारद्वाज के अनुसार उनकी फिल्म मकबूल मानवीय रिश्तों की कहानी है और अंडरवर्ल्ड केवल कथानक की पृष्ठिभूमि के रूप में है। श्री भारद्वाज ने इनकार किया कि उन्होंने 'गॉडफादर' या अन्य किसी फिल्म की नकल करने का प्रयास किया है। उन्होंने कहा कि अंडरवर्ल्ड ने हमेशा उन्हें अचंभित किया है और वह एक ऐसी फिल्म बनाना चाहते थे जिसमें अंडरवर्ल्ड की पृष्ठिभूमि हो लेकिन नाटकीय हो इसीलिए उन्होंने मैकबेथ नाटक का कथानक उठाया। श्री भारद्वाज ने कहा कि मूल कहानी वही है लेकिन इसमें थोड़ा सा बदलाव किया है। शेक्सपियर की ...

हिंदी रंगमंच दिवस और यथार्थ

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आज चैत्र शुक्ल ११ संवत २०७७ है अतः हिंदी पंचांग के अनुसार हिंदी का पहला मंचित नाटक शीतला प्रसाद कृत नाटक 'जानकी मंगल' की प्रस्तुति १५२ वर्ष पहले बाबू ऐश्वर्य नारायण सिंह के प्रयत्न से 'बनारस थिएटर' में बड़ी धूम धाम से खेला गया। वहीं पहला हिंदी नाटक 'नहुष' (जो भारतेंदु जी के पिता जी ने लिखी है) को मानते हैं। बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र ने प्रेक्षालय का नाम तो दिया पर वह बनारस के किस स्थान पर स्थित था उल्लेख नहीं किया। जिस समय वह ये लेख लिख रहे होंगे तब 'बनारस थिएटर' इतना जाना पहचाना नाम था कि उसके नाम का उल्लेख होते ही लोग उसका अनुमान उसी प्रकार से लगा लेते होंगे, जिस प्रकार आज बनारस के हर रँगप्रेमी 'श्री नागरी नाटक मण्डली' कहते ही कबीर चौराहा के पिपलानी कटरा के समीप के स्थान विशेष को ही जानता है। पर मजे की बात यह है कि यह नाम एक रंग मण्डली का है जिसकी स्थापना 1909 ईसवी में हुई। पर वहां स्थित प्रक्षागृह का असली नाम 'मुरारीलाल मेहता प्रक्षागृह (1960) है, जो उतना प्रचलित नहीं। अब कुछ लोग यह दावा करते हैं कि बनारस के केंटोनमेंट क्षेत्र मे...

मोरा गोरा रंग लई ले

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  बन्दिनी १९६३ में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है जिसके निर्माता और निर्देशक बिमल रॉय थे जिन्होंने दो बीघा ज़मीन और मधुमती जैसी प्रतिष्ठित फ़िल्में बनायीं थीं। इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे अशोक कुमार, धर्मेन्द्र और नूतन। बॉक्स ऑफ़िस में इस फ़िल्म ने ठीक ठाक ही प्रदर्शन किया था। फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में इसे उस वर्ष छ: पुरस्कारों से नवाज़ा गया था जिसमें फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार भी शामिल था। यह फ़िल्म एक नारी प्रधान फ़िल्म है, जो कि हिन्दी फ़िल्मों में कम ही देखने को मिलता है। सुजाता के बाद बिमल रॉय की यह दूसरी नारी प्रधान फ़िल्म थी। बंदिनी की कहानी कल्यानी (नूतन) के इर्द-गिर्द घूमती है। यह शायद अकेली ऐसी फ़िल्म है जिसमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गांव की साधारण महिलाओं का योगदान दर्शाया गया हो।  इस फ़िल्म के संगीतकार सचिन देव बर्मन हैं तथा गीतकार शैलेन्द्र और गुलज़ार हैं।  फ़िल्म में पार्श्व संगीत का भार राहुल देव बर्मन ने सम्हाला  गीतकार के रूप में यह गुलज़ार की पहली फ़िल्म थी। उन्होंने इस फ़िल्म के लिए मोरा गोरा रंग लई ले लिखा है। साथ ही सहा...

आंगिकाभिनय

आंगिकाभिनय सर्वे हस्तप्रचाराश्च प्रयोगेषु यथाविधि। नेत्रभ्रूमुखरागाद्य: कर्त्तव्य व्यञ्जिता बुधै: ।। ना. शा. ९/१६४ हस्त प्रचारों को प्रयोग के समय शास्त्र निदर्शित विधि के साथ नेत्र, भौंहे, मुखराग आदि द्वारा विद्वत व्यक्त करें। यत्र व्यग्रा वु भौ हस्तो तत्तद दृष्टि विलोकनै: । वाचिकाभिनयं कुर्याद विरामेरर्थ दर्शकै: ।। ना. शा. ९/१७४ वाचिक अभिनय के समय विभिन्न दृष्टियों तथा अवलोकन क्रियाओं को हस्त क्रियाओं के अनुसार इस प्रकार दक्षता पूर्वक निदर्शित करना चाहिये जिससे कि उनके द्वारा प्रदर्शित वाचिक अभिनय विराम होने पर भी अर्थों की (पूर्ण) अभिव्यक्ति हो। पाद योर नुगौ चापि हस्तौ कार्यो प्रयोकतृभि:। ना.शा. १३/४४ यतो हस्त स्ततो दृष्टिर्य तो दृष्टि स्ततो मनः। यतो मन स्ततो भावो यतो भाव स्ततो रसः।। अ. द. ३७ पैरों की गति का हाथों द्वारा अनुशरण होना चाहिए। जिधर हाथ हो दृष्टि उसका अनुशरण करे। दृष्टि पर मन हो। जहाँ मन हो वहीं भाव और जहाँ भाव वहीं रस। नाट्यशास्त्र || अभिनयदर्पण

शिशुस्मृति : कठपुतली का खेल

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शिशुस्मृति : कठपुतली का खेल कठपुतली कलाकार मिथिलेश दुबे से रंगकर्मी जयदेव दास द्वारा लिए गए साक्षात्कार के मुख्य अंश।  बचपन की स्मृतियों में कुछ ठहरा हो न हो एक स्मृति बहुत गहरे ही रची बसी है। स्कूल में इनसे पहली मुलाकात हुई थी। एक छोटे से मंचपर ये पुतलियां न जाने कैसे नाचती गति थी। शिशुमन व नैन उन अदृश्य धागों को ढूंढता कम था और इतराता ज्यादा था। पर आज जब उस और लौटता हूं तो उन कलाकारी पंजो को शून्य पाता हूँ, जिन के इशारों पर वे कथौतलियाँ डोलती थी। पंजों से पूछने पर बताती हैं कि अब बच्चों को इनसे मोह नहीं। क्या ये सच है कि शिशु मन इतना स्मार्ट हो गया है कि कल्पलोक से विरत होना चाहता होगा। नहीं हमने ही उनके हाथों में प्लास्टिक के खिलौने दिए और अब तो मोबाइल से उनका जी बहला रहें हैं। इनमें उन नवांकुरों का क्या कुसूर? कठपुतली का खेल बच्चों के लिए एक खेल तो है पर इन्हें चलना या संचालित करना कोई बच्चों का खेल नहीं। इसे एक निपुण शिल्पी या कलाकार ही चला सकता है। इसलिए आज ये एक कला रूप है। कठपुतली कला एक अत्यंत प्राचीन कला है। जिसे नाट्य कला से भी जोड़कर देखा जाता है। आज हमारे बीच कुछ...

विश्व रंगमंच दिवस

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आज विश्व रंगमंच दिवस है। आप सभी रंग सुधियों को बधाई। रंग दिवस की इस शुभ बेला में अपने वर्तमान को जीते हुए अपने बीते हुए दिन को भी याद करना अनिवार्य है। ये कर्तव्य भी है। आने वाले दिनों में हम ऐसे कुछ रंग ऋषियों को याद कर। खुद को समृद्ध करेंगे। जयशंकर प्रसाद कृत नाटक ध्रुवस्वामिनी का एक भावपूर्ण अभिव्यक्ति अभिनेत्री डॉ सुरभि विप्लव अभिनेता जयदेव दास उपेंद्र कृष्ण तारकेश्वर कृष्णाक