शिशुस्मृति : कठपुतली का खेल
शिशुस्मृति : कठपुतली का खेल
कठपुतली कलाकार मिथिलेश दुबे से रंगकर्मी जयदेव दास द्वारा लिए गए साक्षात्कार के मुख्य अंश।
बचपन की स्मृतियों में कुछ ठहरा हो न हो एक स्मृति बहुत गहरे ही रची बसी है। स्कूल में इनसे पहली मुलाकात हुई थी। एक छोटे से मंचपर ये पुतलियां न जाने कैसे नाचती गति थी। शिशुमन व नैन उन अदृश्य धागों को ढूंढता कम था और इतराता ज्यादा था। पर आज जब उस और लौटता हूं तो उन कलाकारी पंजो को शून्य पाता हूँ, जिन के इशारों पर वे कथौतलियाँ डोलती थी। पंजों से पूछने पर बताती हैं कि अब बच्चों को इनसे मोह नहीं। क्या ये सच है कि शिशु मन इतना स्मार्ट हो गया है कि कल्पलोक से विरत होना चाहता होगा। नहीं हमने ही उनके हाथों में प्लास्टिक के खिलौने दिए और अब तो मोबाइल से उनका जी बहला रहें हैं। इनमें उन नवांकुरों का क्या कुसूर?
कठपुतली का खेल बच्चों के लिए एक खेल तो है पर इन्हें चलना या संचालित करना कोई बच्चों का खेल नहीं। इसे एक निपुण शिल्पी या कलाकार ही चला सकता है। इसलिए आज ये एक कला रूप है। कठपुतली कला एक अत्यंत प्राचीन कला है। जिसे नाट्य कला से भी जोड़कर देखा जाता है। आज हमारे बीच कुछ कलाकार ही इस विधा को संग लेकर आगे बढ़ रहे हैं। उनमें से एक मिथिलेश दुबे हैं।
जयदेव : मिथिलेश जी कठपुतली कला का इतिहास कितना पुराना है?
मिथिलेश : इसका उल्लेख ईशा पूर्व चौथी शताब्दी से मिलता है। महर्षि पाणिनी प्रणीत 'अष्ट अध्यायी' ग्रंथ के नटसूत्रों से भी इसका पता चलता है कि पुतली नाटकों का प्रचलन उससे पहले से था।
जयदेव : इन नाटकों की कथावस्तु काल्पनिक होती है या कुछ और....?
मिथिलेश : भारत में पारम्परिक कठपुतली नाटकों की कथावस्तु में पौराणिक साहित्य, लोककथाएं और किवदंतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज चौहान, हीर-रांझा, लैला-मजनू आदि की कथाएँ ही कठपुतली के खेल का हिस्सा थे। लेकिन अब सामाजिक विषयों, महिला शिक्षा, पौढ़ शिक्षा, परिवार नियोजन, ज्ञानवर्धक और मनोरंजक विषयों को दिखाया जाता है।
जयदेव : महापुरषों की जीवनियां भी दिखाई जाती है। आप भी तो गांधी के जीवन पर आधारित कठपुतली के इस खेल यानी नाटक को लेकर सम्पूर्ण भारत में भ्रमण कर रहें है। पिछले कई सालों से।
मिथिलेश : जी आपने सही फ़रमाया। मुझे हर स्कूल में बच्चों के बीच इसे खेलना बहुत भाता है। एक सुकून सा मिलता है। जब उन बालकों के चेहरे पर मुस्कान और आंखों में आश्चर्य देखता हूँ, इस खेल को देखते हुए जो उनके चेहरे पर दिखती है। अपना बचपन लौट आता है।
जयदेव : भारत में कठपुतली कला की क्या स्थिति-परिस्थिति है?
मिथिलेश : भारत में ये विधा वर्तमान में संकट के दौर से गुजर रही है। जीविकोपार्जन के लिए कठपुतली कलाकारों को गांव, कस्बों से पलायन करना पड़ रहा है। रोजगार की तलाश ने ही कठपुतली कलाकारों की नई पीढ़ी को इससे विमुख होने को मजबूर किया है। जन उपेक्षा व उचित संरक्षण के अभाव में नई पीढ़ी इस पुरातन काल से उतनी नहीं जुड़ पा रही है, जितनी जरूरत है। प्राचीन भारतीय संस्कृति व कला को बचाने और प्रोत्साहन देने के लिए तमाम डॉन के बावजूद कठपुतली कला को बचाने के लिए सरकारी स्तर पर कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है।
जयदेव : विश्व कठपुतली दिवस की जानकारी देते हुए। इस दिन के कर्यक्रम के बारे में बताइये।
मिथिलेश : विश्व कठपुतली दिवस की शुरुआत 21 मार्च 2003 को फ्रांस में हुई थी, इसके बाद यह दिवस सभी देशों में मनाया जाने लगा। भारत मे भी इस दिवस का आयोजन दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई, बनारस सहित देश के अनेक भागों में मनाया जाता है। प्रति वर्ष की भांति इस बार भी हम कई कार्यक्रम करना चाहते थे। पिछले वर्ष हमने एक कठपुतलियों की झांकी भी शोभा यात्रा के रूप में निकली थी। पर इस बार कोरोना वाइरस के चलते प्रसाशन ने एहतियात के तौर पर हमें इजाजत नहीं दी। पर हम छोटे तौर पर ही सही अपने आंगन में उन बच्चों के इंताजर में रहेंगे जो कठपुतली का इतिहास जनना चाहते हो या कठपुतलियों को चलाना सीखना चाहते हों।
जयदेव : मिथिलेश जी आपका बहुत बहुत आभार। आपने इस कला को जीवित रखने में जो महती भूमिका अदा की है। उसका फल सुखद होगा। इन्हीं बातों से आपसे विदा लेता हूँ। धन्यवाद।
कठपुतली कलाकार मिथिलेश दुबे से रंगकर्मी जयदेव दास द्वारा लिए गए साक्षात्कार के मुख्य अंश।
बचपन की स्मृतियों में कुछ ठहरा हो न हो एक स्मृति बहुत गहरे ही रची बसी है। स्कूल में इनसे पहली मुलाकात हुई थी। एक छोटे से मंचपर ये पुतलियां न जाने कैसे नाचती गति थी। शिशुमन व नैन उन अदृश्य धागों को ढूंढता कम था और इतराता ज्यादा था। पर आज जब उस और लौटता हूं तो उन कलाकारी पंजो को शून्य पाता हूँ, जिन के इशारों पर वे कथौतलियाँ डोलती थी। पंजों से पूछने पर बताती हैं कि अब बच्चों को इनसे मोह नहीं। क्या ये सच है कि शिशु मन इतना स्मार्ट हो गया है कि कल्पलोक से विरत होना चाहता होगा। नहीं हमने ही उनके हाथों में प्लास्टिक के खिलौने दिए और अब तो मोबाइल से उनका जी बहला रहें हैं। इनमें उन नवांकुरों का क्या कुसूर?
कठपुतली का खेल बच्चों के लिए एक खेल तो है पर इन्हें चलना या संचालित करना कोई बच्चों का खेल नहीं। इसे एक निपुण शिल्पी या कलाकार ही चला सकता है। इसलिए आज ये एक कला रूप है। कठपुतली कला एक अत्यंत प्राचीन कला है। जिसे नाट्य कला से भी जोड़कर देखा जाता है। आज हमारे बीच कुछ कलाकार ही इस विधा को संग लेकर आगे बढ़ रहे हैं। उनमें से एक मिथिलेश दुबे हैं।
जयदेव : मिथिलेश जी कठपुतली कला का इतिहास कितना पुराना है?
मिथिलेश : इसका उल्लेख ईशा पूर्व चौथी शताब्दी से मिलता है। महर्षि पाणिनी प्रणीत 'अष्ट अध्यायी' ग्रंथ के नटसूत्रों से भी इसका पता चलता है कि पुतली नाटकों का प्रचलन उससे पहले से था।
जयदेव : इन नाटकों की कथावस्तु काल्पनिक होती है या कुछ और....?
मिथिलेश : भारत में पारम्परिक कठपुतली नाटकों की कथावस्तु में पौराणिक साहित्य, लोककथाएं और किवदंतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज चौहान, हीर-रांझा, लैला-मजनू आदि की कथाएँ ही कठपुतली के खेल का हिस्सा थे। लेकिन अब सामाजिक विषयों, महिला शिक्षा, पौढ़ शिक्षा, परिवार नियोजन, ज्ञानवर्धक और मनोरंजक विषयों को दिखाया जाता है।
जयदेव : महापुरषों की जीवनियां भी दिखाई जाती है। आप भी तो गांधी के जीवन पर आधारित कठपुतली के इस खेल यानी नाटक को लेकर सम्पूर्ण भारत में भ्रमण कर रहें है। पिछले कई सालों से।
मिथिलेश : जी आपने सही फ़रमाया। मुझे हर स्कूल में बच्चों के बीच इसे खेलना बहुत भाता है। एक सुकून सा मिलता है। जब उन बालकों के चेहरे पर मुस्कान और आंखों में आश्चर्य देखता हूँ, इस खेल को देखते हुए जो उनके चेहरे पर दिखती है। अपना बचपन लौट आता है।
जयदेव : भारत में कठपुतली कला की क्या स्थिति-परिस्थिति है?
मिथिलेश : भारत में ये विधा वर्तमान में संकट के दौर से गुजर रही है। जीविकोपार्जन के लिए कठपुतली कलाकारों को गांव, कस्बों से पलायन करना पड़ रहा है। रोजगार की तलाश ने ही कठपुतली कलाकारों की नई पीढ़ी को इससे विमुख होने को मजबूर किया है। जन उपेक्षा व उचित संरक्षण के अभाव में नई पीढ़ी इस पुरातन काल से उतनी नहीं जुड़ पा रही है, जितनी जरूरत है। प्राचीन भारतीय संस्कृति व कला को बचाने और प्रोत्साहन देने के लिए तमाम डॉन के बावजूद कठपुतली कला को बचाने के लिए सरकारी स्तर पर कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है।
जयदेव : विश्व कठपुतली दिवस की जानकारी देते हुए। इस दिन के कर्यक्रम के बारे में बताइये।
मिथिलेश : विश्व कठपुतली दिवस की शुरुआत 21 मार्च 2003 को फ्रांस में हुई थी, इसके बाद यह दिवस सभी देशों में मनाया जाने लगा। भारत मे भी इस दिवस का आयोजन दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई, बनारस सहित देश के अनेक भागों में मनाया जाता है। प्रति वर्ष की भांति इस बार भी हम कई कार्यक्रम करना चाहते थे। पिछले वर्ष हमने एक कठपुतलियों की झांकी भी शोभा यात्रा के रूप में निकली थी। पर इस बार कोरोना वाइरस के चलते प्रसाशन ने एहतियात के तौर पर हमें इजाजत नहीं दी। पर हम छोटे तौर पर ही सही अपने आंगन में उन बच्चों के इंताजर में रहेंगे जो कठपुतली का इतिहास जनना चाहते हो या कठपुतलियों को चलाना सीखना चाहते हों।
जयदेव : मिथिलेश जी आपका बहुत बहुत आभार। आपने इस कला को जीवित रखने में जो महती भूमिका अदा की है। उसका फल सुखद होगा। इन्हीं बातों से आपसे विदा लेता हूँ। धन्यवाद।
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