तंत्रकथा 3
तथागत जब बोधिसत्व नहीं बने थे, यानी देव दत्त से भी पहले; जयदेव उस काशी में विचरण करता था, जब काशी ने किसी नगर का रूप नहीं धरा था। रूप लेता भी कैसे तीन पहाड़ थे और बस एक नदी का किनारा भर था। किनारे, जहां दूर दूर तक काश वन हुआ करते थे। नदी तो गंगा ही थी पर भगीरथ कथा का प्रवचन, प्रचलन में नहीं था। नगर न होने से नर-नारी भी नहीं थे। जहां नदी में मगरमच्छ का बोलबाला था। वहीं किनारों पर बाघ का राज चलता था। जाने कब उनमें यह समझौता हो चुका था कि दिन में किनारों पर मगरमच्छ धूप सेक लेंगे और बाघ रात में नदी के पानी से अपनी प्यास बुझा लेंगे। यह नियम अब भी लागू है। पर कभी कभी किसी बाघ को या फिर मगरमच्छ को यह नियम तोड़ने का मन करता है। वो यह नहीं समझते कि जो नियम पहले से बना है वो अब प्रकृति का नियम हो गया है। उनके इस क्षणिक लालसा से प्रकृति के नियम में खलल पड़ता है और झेलना जयदेव को पढ़ता है।
अल सुबह बाघ को जमीन खोदते देख मगरमच्छ ने पूछा गर्मी बहुत अधिक है तुम्हारे इस रवैए को देखकर मानना ही पड़ रहा है।
बाघ ने काम जारी रखते हुए कहा - ऐसा क्यू।
मगर ने कहा - सुना है दिमाग में गर्मी लगने पर प्राणी अदभुत आचरण करते है, जैसा तुम कर रहे हो। जमीन को चीड़ फाड़ कर।
बाघ ने कहा, मैं पानी की तलाश में हूं। यहां पानी मिल गया तो अभी जो नदी उतनी दूर चली गई है। हमें वहां तक जाने की जहमत नहीं उठानी पड़ेगी।
मगर ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
अचानक बाघ के नाखून में कोई कांटे सी चीज चुभी। पर आंखों में दर्द की जगह एक चमक और जुबान पर - देखो मुझे क्या मिला। ये एक छोटी सी नाव है। पर ये यहां कैसे आई?
मगरमच्छ अपनी ही जगह से कहा पिछले किसी बाढ़ में बह कर आई होगी। और समय के साथ किनारे की रेत में धस्ती चली गई।
कुछ दिन में ही बाघ उस नाव के साथ ही अपना रात दिन बिताने में मशगूल हो गया, आखिर वो नाव उसने जो खोजी थी। तो अब नव उसका था। उसने नाव में एक सुंदर सी डोर भी बांध दी, जैसे वो नाव की बांह हो। जिसे पकड़ बाघ काश वन में, नदी में, पहाड़ पर निकल पड़ता। दोनों में प्रगाढ़ प्रेम। निर्जीव और सजीव का भेद ही नहीं, दोनों एकाकार। सर्दी गर्मी का कोई एहसास नहीं, भाषा भी बाधक नहीं। मौन संवाद में इतना रस जो समाहित था।
प्रकृति का नियम है बदलना। गर्मी का मौसम जाता रहा और बारिश ने मौसम को प्रेमिल बना दिया। बाघ और नाव उस बारिश में भीगते, भागते, गाते...
उनके प्रेम की तरह बारिश भी दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी और एक दिन चरम पर आ गई। कई दिन की बारिश में नदी ने भी रूप बदला अब वो किनारे को छोड़ काशी के तीनों पहाड़ को नापने लगी।
बाघ और नाव इस भीषण प्रलय में भी संग रहने का भरपूर प्रयास करते। नदी का बहाव नाव को अपनी ओर खींचती पर बाघ, नाव की डोर को कस कर थामे रहता। नदी के बहाव ने नाव को कई दफा बहकाया, सपने दिखाए दूर देश के।
बहाव के सानिध्य में आकर नाव का भी मन डोलने लगा। अब वो खुद को बहाव से अलग करने का प्रयास नहीं कर रही थी। बाघ अब भी नाव की डोर को अपने जी जान से थामे रखने का प्रयास अकेले ही कर रहा था। एक दिन वो छूट गया आश्चर्य कि नाव को कोई फर्क नहीं पड़ा और बहाव के साथ दूर निकल गई।
मौसम फिर बदला बारिश चली गई। शरत ऋतु ने काशी के सौंदर्य को बढ़ाने लगी। पर बाघ दुःख से विहावल एकांत में ऐसे पड़ा रहा, जैसे उसमें अब प्राण ही नहीं बचे। बाघ के इस परिणीति के बारे में मगरमच्छ से जयदेव ने सुना। बाघ के पास गया और कहा जो कहीं से आया हो वो एक दिन कहीं चला ही जायेगा। तुम उस अनुभव के सुखद अहसास को अब संजोकर दुःख को निमंत्रित मत करो। ईश्वर का शुक्रिया अदा करो को तुम्हारे जीवन में भी प्रेम आया था। सर्वशक्तिमान ऐसे ही आते हैं, हर प्राणी के पास।
-दासजयदेव विरचित तन्त्रकथा से साभार
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