'बुद्ध पूर्णिमा के बहाने गेशे जम्पा की बात'
आज बुद्ध पूर्णिमा भी है और चन्द्र ग्रहण भी। विश्व के वर्तमान हालात को भी इसी प्रतीक के माध्यम से समझ सकते हैं कि पूरे विश्व में एक वायरस ने ग्रहण लगा रखा है। जैसे ज्ञान पर माया का आवरण सदैव होता है। चन्द्र ग्रहण तो प्रकृति के नियम से छट भी जाएगा, पर माया आवरण को हटाने के लिए प्रयत्न करना होगा। इसी आवरण को भेद कर बुद्ध ने बुद्धत्व को पाया था। आज कोई भी बुद्धत्व को लालायित नहीं अपना कुछ भी त्यागने को तैयार नहीं। पर एक देश है जहां आज भी घर का एक लड़का भिक्षु बनना स्वीकारता है। वह जगह है तिब्बत।
तिब्बत की बात क्यों! ये सोच रहे होंगे आप। पर मुझे लगता है आज भी सही मायने में बुद्ध की शिक्षा वहीं बसी हुई है। पर तिब्बत के हालात कुछ ऐसे हैं कि उसे बयां करना बड़े जिगर का काम है। बस एक राह सुझा सकता हूँ, यदि मंटो के 'टोबा टेक सिंह' को पढ़ सकते हैं, तो कुछ हद तक समझ जाएंगे। चीन उसपर ऐसी ज्यात्तियां बरपा रहा है, जो असहनीय हो चला है। वो तो बुद्ध के विचारों ने ही तिब्बत को इतनी शक्ति दे रखी है कि वह हिंसक प्रतिरोध न करके भी अपनी जमीन से चिपक हुआ है, नहीं तो कब का उखड़ गए होता। ये अहिंसक प्रवित्ति ही पूर्व की पहचान है कि मूल दर्शन है। जिसे न जाने कैसे चीन भूल चुका है। पर उसे याद दिलाना होगा। पूर्व का देश सदैव ऋषि मुनियों का रहा है। उसी में उसकी पहचान सुरक्षित है। स्वामी विवेकानंद का भी यही मानना था। पूर्व की बात आते ही भारत की बात आती है। और जब उसके ज्ञान दर्शन शिक्षा दीक्षा की बात करनी हो तो बनारस की बात अहरह ही आ जाती है। वाराणसी के लिए देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू का कहना था-
वाराणसी पूर्व दिशा की शाश्वत नगरी है, न केवल
भारत के लिए, बल्कि पूर्वो एशिया के लिए भी।
'काशी' यानी वह भूभाग जो अधिक जल के कारण कुश और काश के जंगलों से भरा रहता था। 'वाराणसी' को अविमुक्त, आनंदवन, रुद्रवास के नाम भी जाना जाता रहा है। इसके करीब 18 नाम - वाराणसी, काशी, फो लो - नाइ (फाह्यान द्वारा प्रदत्त नाम), पो लो - निसेस (ह्वेनसांग द्वारा प्रदत्त नाम), बनारस (मुस्लिमों द्वारा प्रयुक्त), बेनारस, अविमुक्त, आनन्दवन, रुद्रवास, महाश्मशान, जित्वरी, सुदर्शन, ब्रह्मवर्धन, रामनगर, मालिनी, पुष्पावती, आनंद कानन और मोहम्मदाबाद आदि नाम भी पुरातन काल में लोगों की जुबान पर रहे हैं। 24 मई, 1956 को प्रशासनिक तौर पर इसका सर्वमान्य नाम 'वाराणसी' के तौर पर स्वीकार किया गया था।सरकारी गजेटियर के अलावा कई पुराणों और इतिहास की किताबों में काशी की महिमा का बखान मिलता है। काशी को प्राचीन काल में आनंद कानन कहा जाता था, यह वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम का केंद्र था। देश के प्रमुख मार्गों से जुड़ा था और व्यापार का पड़ाव भी था। लिहाजा देश भर के लोग यहां आए और बस गए। लिहाजा मुस्लिमों ने इस देश की स्तरीय समरसता को देखते हुए इसे बनारस कहा तो उनके बाद अंग्रेजों ने बेनारस भी कहा। शहर की बनावट और बसावट को देखें तो आज भी देश भर के अलग अलग राज्यों के लोग अब बनारस में रच बस चुके हैं और इसे मिनी इंडिया कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। स्कंदपुराण के अनुसार काशी नाम 'काश्य' शब्द से बना है, जिसका अर्थ प्रकाश से है जो मोक्ष की राह को प्रकाशित करता है।
'काशी' केवल नाम ही नहीं एक विलक्षण संस्कृति है। जिसे जीना हर उस शख्स को भाने लगता है जो एक बार यहां आ गया। जिसे जुबानी बताना कठिन है। भगवान शिव की नगरी 'काशी' 'बनारस' या 'वाराणसी' जो भी कहें मगर तीनों लोकों से न्यारी नगरी का महत्व कहीं से आज भी कम नहीं है। काशीवासियों को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि इस नगरी का जिक्र मत्स्य पुराण में भी किया गया है। हालांकि, सबका अपना मत है लेकिन पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार 'वरना' और 'असि' नाम की नदियों के बीच में बसने के कारण ही इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा। वाराणसी को पुरातन काल से अब तक कई नामों से बुलाया जाता है। बौद्ध और जैन धर्म का भी बड़ा केंद्र होने की वजह से इसके नाम उस दौर में सुदर्शनपुरी और पुष्पावती भी रहे हैं।
प्रबुद्ध सोसाइटी के सभापति डॉ॰ श्रीप्रकाश'बरनवाल का कहना है कि बौद्ध धर्म' भारत की श्रमण परम्परा से निकला ज्ञान धर्म और दर्शन है। ईसा पूर्व 6 वीं शताब्दी में गौतम बुद्ध द्वारा बौद्ध धर्म का प्रवर्तन किया गया। गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व में लुम्बिनी (वर्तमान नेपाल में) में हुआ, उन्हें बोध गया में ज्ञान की प्राप्ति हुई, जिसके बाद सारनाथ में प्रथम उपदेश दिया, और उनका महापरिनिर्वाण 483 ईसा पूर्व कुशीनगर,भारत में हुआ था। उनके महापरिनिर्वाण के अगले पाँच शताब्दियों में, बोद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैला और अगले दो हजार वर्षों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया में भी फैल गया।
सारनाथ, काशी अथवा वाराणसी के दस किलोमीटर पूर्वोत्तर में स्थित प्रमुख बौद्ध तीर्थस्थल है। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं दिया था जिसे "धर्म चक्र प्रवर्तन" का नाम दिया जाता है और जो बौद्ध मत के प्रचार-प्रसार का आरंभ था और आज भी है। 'सारनाथ' यानी वो पावन बौद्ध बिहार जो बौद्धों के लिए ज्ञान का प्रथम द्वारा है। अतः तिब्बत के बौद्ध अनुयायी यहां आते हैं और भारत सरकार उन्हें शरण देकर अपनी मित्रता निभाता है। पर उनकी लड़ाई में और किसी भी तरह की सहायता देने में असमर्थता भी जताता रहता है। चीन से उनको खुद ही निपटना होगा। वो निपट भी रहे हैं पर मौन के सहारे। पर ऐसा नहीं है के तिब्बत के बौद्ध भिक्षु के साथ कोई नहीं है या उनकी बात कोई नहीं कर रहा है। उनकी बात बनारस की ही डॉ नीरजा माधव ने उनके वर्तमान स्थिति परिस्थिति का जायजा लेते हुए उसे अपने उपन्यास 'गेशे जम्पा' के माध्यम से सबके सामने रखा। सुखद है कि उपन्यास को कुछ विश्विद्यालय ने अपने पाठ्यक्रम में भी शामिल कर लिया है।
'गेशे' बौद्ध शिक्षा पद्धति के अनुसार एक उपाधि विशेष है। इस उपाधि या डिग्री पर मुख्य रूप से गेलुग वंश द्वारा जोर दिया जाता है, लेकिन इसे शाक्य और बॉन परंपराओं में भी सम्मानित किया जाता है। समकक्ष गेशेमा डिग्री महिलाओं को प्रदान की जाती है।
डॉ. नीरजा माधव के उपन्यास 'गेशे जम्पा' का नाट्य रूपांतरण वाराणसी की नाट्य संस्था ‘कामायनी’ द्वारा सुमित श्रीवास्तव के निर्देशन में मंचित किया जाता है, जो महामारी के चलते स्थगित रखा गया है। यह नाटक तिब्बती लोगों के अपनी आज़ादी के लिए किए जा रहे संघर्ष की कथा ही नहीं है वरन उनके जीवन के अंतर्द्वंद् और उन पीड़ाओं को हमारे सामने लाता है जिससे सीधे-सीधे आम भारतीय नागरिक अपरिचित है। तिब्बती जीवन को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि तिब्बत की समस्या क्या है ? उसकी भोगोलिक, राजनीतिक , धार्मिक और सामाजिक संरचना को समझे बिना उनकी असल तकलीफों को समझ पाना संभव नहीं है। यह नाटक संकेत रूप में इन सभी पहलुओं से हमें अवगत कराता है। उपन्यास की लेखिका नीरजा माधव और नाटक के निर्देशक दोनों ने ही सारनाथ में रह रहे तिब्बती शरणार्थियों के जीवन और उनकी तकलीफों को बहुत करीब से देखा है और महसूस किया है, शायद इसी से उन्हें उपन्यास लेखन या मंचन के लिए प्रेरित किया है। उपन्यास ‘गेशे जम्पा’ सन 2008 में प्रकाशित हुआ। इसके अतिरिक्त डॉ. नीरजा माधव का एक अन्य उपन्यास ‘हादेनपा’: तिब्बत की डायरी’ भी तिब्बत के लोगों के अंतर्मन की पीड़ा को अभिव्यक्त करता है।
तिब्बत चीन और भारत के मध्य बहुत ऊंचाई पर बसा हुआ है इसीलिए इसे दुनिया की छत कहा जाता है। पिछले दिनों चीनी सेना से जहां झड़प हुई उनमें से एक पंगोंग झील भी तिब्बत से ही आ रही है और कैलाश मानसरोवर भी तिब्बत में ही स्थित है। यह तथ्य नेरेशन के जरिये इस नाटक में बताया जाता है। नाटक की पृष्ठभूमि में तिब्बती लोगों का अपनी ज़मीन से निर्वासन और तिब्बत की स्वायत्तता के लिए अहिंसक आन्दोलन है अतः इसे समझने के लिए इतिहास को खंगालना होगा क्योंकि अधिकांश भारतीय उनके इस आन्दोलन और त्याग के बारे में नहीं जानते। इस नाटक को देखते हुए कश्मीरी पंडितों का विस्थापन बरबस याद आ जाता है। सन1630 के दशक में जब तिब्बत का एकीकरण हुआ तभी से ही तिब्बती और बौद्धों के बीच सत्ता की लड़ाई होती रही है जिसमें मांचू , मंगोल और ओइरात के गुट प्रमुख थे। अंततः पांचवें दलाई लामा इन सभी गुटों को साथ लाने में कामयाब हुए और जेलंग बोद्धों ने 14वें दलाई लामा को मान्यता भी दे दी। सन1951 में जब चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया तब 14वें दलाई लामा के चयन की प्रक्रिया चल रही थी। चीनी सेना से तिब्बती लोगों ने सघर्ष किया लेकिन वे चीनी सेना से पार नहीं पा सके। वे जानते थे इस विद्रोह के बाद नरसंहार चीनी सेना कर सकती है, विद्रोहियों को जेल में भी डाल सकती है अतः दलाई लामा अपने 80,000 अनुयायियों के साथ भारत आ गए। तत्कालीन प्रधान मंत्री नेहरू से बात करके उनको राजनीतिक शरण यहाँ इस शर्त पर मिली कि वे अनुशासन में रहेंगे और चीन के खिलाफ भारत की धरती का इस्तेमाल नहीं करेंगे। उन्हें शरणार्थी नहीं बल्कि अतिथि का दर्ज़ा आज भारत में प्राप्त है। दलाई लामा यहाँ रह कर अहिंसात्मक ढंग से अपना न केवल आन्दोलन जारी रखे हुए हैं बल्कि तिब्बती संस्कृति को बचाने में लगे हैं। आने वाली पीढ़ी को भी तिब्बती संस्कृति में ढालने का प्रयास सुनियोजित तरीके से किया जा रहा है। उन्हें उम्मीद है कि एक दिन चीन समझेगा और बिना खून-खराबे के वे तिब्बत की स्वायतत्ता कायम कर सकेंगे और स्वाभिमान पूर्वक जीने का अधिकार मिलेगा। लेकिन यथार्थ की तस्वीर निराशाजनक है, चीनी सेना द्वारा चीनी मूल के लोगों को भारी तादाद में तिब्बत में बसाया जा रहा है और तिब्बती लोगों को न केवल प्रताड़ित किया जा रहा है बल्कि आर्थिक और सामाजिक भेद -भाव बरता जा रहा है। तिब्बती संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। भारत में रह रहे तिब्बती लोगों के परिजन वहां असुरक्षित महसूस करते हैं, उन्हें यातनाएं दी जा रही हैं और जो भारत से लौट कर वापस तिब्बत जाते हैं उनके साथ भी अच्छा सुलूक नहीं किया जाता। विश्व के अन्य देश भी चीन से अपने संबंध ख़राब नहीं करना चाहते इसलिए इसे चीन का अंदरूनी मामला कह कर दखल नहीं देते हैं। विश्व के इस दोहरे रवैये से तिब्बती आन्दोलन गति नहीं पकड़ पाया। आज मकलोडगंज और सारनाथ सहित कई स्थानों पर तिब्बती रह कर अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे हैं। यह आन्दोलन उन सभी देश के स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष का प्रतीक है जो अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस मायने में नाटक का कथानक विश्व दृष्टि लिए हुए है। तिब्बती समुदाय के बोद्ध धर्म के अनुयायी दलाई लामा को आध्यात्मिक गुरु के रूप के साथ-साथ करुणा के प्रतीक के रूप में भी देखते हैं।
प्रारम्भ में सितार के संगीत के साथ पार्श्व से दलाई लामा के निर्वासन के बारे में बताया जाता है। पात्रों का परिचय कराया जाता है जिसमें गेशे जम्पा, दोलमा माई और देवयानी के बारे में बताया जाता है। आरम्भिक दृश्य में देवयानी भिक्षु बच्चों को पढ़ा रही होती है तभी जम्पा आते हैं, वे देवयानी को पढ़ाते देखते हुए दोलमा माई की कक्षा में जाते हैं जहां माई बच्चों को भारत औत तिब्बत के संबंधों के बारे में बताती है। तिब्बती लोगों के प्रति भारत की सहिष्णुता और आतिथ्य भाव के बारे में वह बच्चों को बताती है। उल्लेखनीय है कि भारत में रह रहे तिब्बतियों की संस्कृति को बचाए रखने के लिए भारत सरकार हर तरह की मदद कर रही है। उनकी निर्वासित सरकार है जो भारत में रह रहे तिब्बतियों के लिए काम करती है जिसका चुनाव खुद तिब्बती करते हैं। सेना और पुलिस को छोड़ कर सारे विभाग निर्वासित सरकार के पास हैं। भारत सरकार की ओर से एक समन्वयक नियुक्त है जो निर्वासित सरकार से समन्वय स्थापित करता है और हर संभव मदद तिब्बती लोगों के हितों के लिए करता है। उनके अपने स्कूल हैं जहाँ उनकी भाषा में तिब्बती बच्चों को पढाया जाता है साथ ही तिब्बती संस्कृति के बारे में बचपन से ही तालीम दी जाती है। भारत अपनी संस्कृति को थोपता नहीं है लेकिन भारत- तिब्बत संबंधों की गहराई और पवित्रता का महत्त्व छोटे बच्चों में संस्कारित किया जाता है। ऐसी ही क्लास माई बच्चों की लेते हुए मंच पर दिखाई जाती हैं। जम्पा अपने कक्ष में आते हैं और अतीत की स्मृतियों में खो जाते हैं। यहाँ पर्दे के पीछे आकृतियों से यानी शैडो के जरिये जम्पा के बचपन के दृश्य दिखाए जाते हैं। लाल नीली रोशनी के साथ धुंए का प्रयोग करके स्मृतियों को बहुत ख़ूबसूरती से दिखाया गया है। चीनी सेना द्वारा उसके माँ बापू को प्रताड़ित करते दिखाते हैं और फिर अन्य बच्चों के साथ जम्पा का तिब्बत से भारत में प्रवेश आदि सब जम्पा की आँखों के सामने घूम जाते हैं। जम्पा अपने कक्ष में आ जाते हैं देवयानी जो भारतीय मूल की है वह भी शिक्षिका है ,जम्पा के पास आती है। देवयानी और जम्पा के माध्यम से उन बुनियादी सवालों को सामने रखा जाता है जो तिब्बतियों की मुक्ति संग्राम और बाल भिक्षुओं से जुड़े हैं। देवयानी कहती है कि दूसरे देश में रह कर तिब्बत की स्वतंत्र की लड़ाई कैसे लड़ी जा सकती है ? अपने सवाल के तर्क में भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में भगत सिंह ,सुभाष और गाँधी की भूमिका की चर्चा करती है। देवयानी प्रश्न करती है कि क्या माँ से उसका बच्चा छीन लेने से माँ की ममता और करुणा समाप्त हो जाते हैं ? उस माँ के मन पर क्या गुजरती होगी जो अपने कलेजे के टुकडे को इतनी छोटी उम्र में जबरन भिक्षु बनाने के लिए दूसरे देश भेज देती है। जम्पा देवयानी की भावनाओं की कद्र करता है और बात के जवाब में सिर्फ परंपरा की बात करता है। लेकिन तिब्बती संस्कृति को बचाए रखने की विवशता ऐसा करने के लिए मजबूर कर रही है भले ही वह अमानवीय पक्ष हो। किन्तु यह सवाल महत्वपूर्ण है कि बच्चों से उनका बचपन छीनना कहाँ तक उचित है ? मंच पर तिब्बती भिक्षुओं का एक दल एक ओर से दूसरी ओर बोद्ध धर्म के प्रतीक चिन्ह हाथ में लिए “बुद्धं शरणं गच्छामि" उच्चारित करते हुए जाता है। निर्देशक ने दृश्य परिवर्तन के लिए यह तरीका अपनाया है जिसमें दृश्य एक दूसरे से गुंथे हुए होने के साथ-साथ अलग बने रहते हैं। अगले दृश्य में तिब्बत की विभिन्न धार्मिक और देश से जुड़ी अवधारणाओं के बारे में जम्पा बताते हैं। तिब्बत के झंडे में दिखाए गए रंगों की व्याख्यायित करते हैं। वे बताते हैं नीला रंग विभिन्न जातियों का प्रतीक है तो पीला रंग बोद्ध धर्म का प्रतीक है। उसके बाद तिब्बती संस्कृति की झलक दिखलाने के लिए ‘लोसर’ यानी तिब्बतियों का नव वर्ष मनाने का दृश्य दिखाया जाता है जो कि चंद्र कलैंडर के अनुसार मनाया जाता है और पंद्रह दिन तक चलता है। नाटक में तिब्बती लोक नृत्य के माध्यम से तिब्बती परिवेश खड़ा किया जाता है।
नाटक में देवयानी भारत का और जेम्पा तिब्बत का प्रतिनिधित्व करते जान पड़ते हैं साथ ही उनके बीच के रिश्ते से प्रतीक रूप में भारतीय संस्कृति और तिब्बती संस्कृति के अन्तरसंबंधों को भी समझाने क प्रयास किया गया है। देवयानी तिब्बती समुदाय या कहें उनके संघर्ष और जेम्पा से इस क़दर रिश्ता बना चुकी है कि उसके पिता जब विधायक के भाई से उसके विवाह का प्रस्ताव रखते हैं तो वह उसे ठुकरा देती है। जम्पा तिब्बती समाज की एक मीटिंग में धर्मशाला जाता है वहां उसकी मुलाक़ात अध्यक्ष से होती है वह उसे बताता है कि चीनी सरकार के अत्याचार बढ़ गए हैं। जेम्पा के पिता वहां जेल में बंद हैं। वहीँ उसकी मुलाकात अपने बहनोई से होती है। दोनों भावुक होकर एक दूसरे से लिपट कर रोते हैं। यह दृश्य बहुत ही मार्मिक बन पड़ा है और उमेश भाटिया (जेम्पा ) तथा अरविन्द राय (मग्पा) ने अपने अभिनय से इस दृश्य इस क़दर जीवंत बना दिया है कि मन को छू लेता है। नीरजा माधव यहां यह सवाल भी उठाती है कि भिक्षु बन जाने से मनुष्य की सामाजिक और बायोलॉजिकल जरूरतों के तंतु मरते नहीं हैं भले ही हम निर्लिप्त भाव प्रदर्शित करते रहें।
लौट कर जम्पा सारनाथ पहुँचता है और वापस तिब्बत लौटने का मानस बना लेता है। देवयानी से यहाँ फिर उसकी तिब्बती आन्दोलन के अंतर्विरोध पर चर्चा होती है। देवयानी जेम्पा से पूछती है –“ सर क्या यह समय की विडंबना नहीं कही जाएगी कि एक तरफ पूरे विश्व में परमाणु अस्त्र -शस्त्र हैं, तमाम संधियों के बनने -बिगड़ने की टकराहट है, युद्ध है दूसरी तरफ बुद्ध है, उनकी करुणा है, प्रेम का सन्देश है। दोनों दो छोर समन्वय या शांति की बातें रेत-महल जैसी नहीं लगती। तब जेम्पा कहता है –“नहीं देवयानी आज नहीं तो कल, दुनिया को युद्ध और शांति में से किसी एक को चुनना होगा। हमें पूरी उम्मीद है कि दुनिया शांति की ओर झुकेगी। नीरजा माधव तिब्बती लोगों की सोच को जेम्पा के कथन से हमारे सामने रखती है तो देवयानी विश्व परिदृश्य का विश्लेषण कर तिब्बती आन्दोलन के कमजोर पक्ष की ओर संकेत करती है। वह स्वगत के मार्फत कहती है कि गेशे जम्पा की दृष्टि में एक उम्मीद की आशा थी, लेकिन मैं समझती हूँ युद्ध और शांति में वही संबंध है जो यथार्थ और कल्पना में है। युद्ध हमारा यथार्थ है जिसे हम अपनी खुली आँखों से देखते हैं और शांति हमारी कल्पना है जिसकी चाहना एक सुन्दर पृथ्वी के लिए आवश्यक है। म्यांमार, ताइवान के पास चीन द्वारा द्वीपों पर कब्ज़ा करना और हांगकांग की घटनाएं नीरजा की सोच की ताईद करती हैं। चीन की विस्तारवादी नीतियां शांति को कल्पना ही सिद्ध करती है। तिब्बत की चीन और भारत के बीच बफर जोन के रूप में उतना ही महत्त्व है जितना कश्मीर का अफगानिस्तान और भारत के बीच होना।
अंतिम दृश्य में जेम्पा तिब्बत लौटने से पहले देवयानी से मिलता है। जेम्पा कालिदास की शाकुंतला का उदाहरण रखता है। देवयानी कहती है कि ऐसा इंसान था कालिदास जो अपनी पत्नी को छोड़ कर चला जाता है। वही आप कर कर रहे हैं। कालिदास यहाँ रूपक के रूप में बन कर उभरते हैं। देवयानी जेम्पा से बिछुड़ने के ख्याल से बेचैन हो उठती है। वह सोचती है जेम्पा उसे छोड़ कर न जाए। इस दृश्य में उसका जेम्पा के लिए प्रेम पहली बार प्रत्यक्ष रूप में दिखता है। जेम्पा भी भावुक हो उठता है किन्तु वह अपनी भावनाओं पर काबू कर लेता है और अपने वतन के लिए प्रस्थान कर जाता है। यहाँ नीरजा तिब्बती भिक्षुओं के आत्म नियंत्रण और अनुशासन को स्थापित करने का प्रयास करती हैं। यह प्रणय दृश्य भी बहुत सुंदर बन पड़ा है। पवित्र प्रेम का अनुपम उदाहरण बन कर उभरता है जिसे सोनल कुशवाहा (देवयानी) और उमेश भाटिया ने अपने अभिनय से बहुत संवेदनशील और अर्थवान बना दिया। नाटक में कई जगह सघन अनुभूति के क्षण पूरी तीव्रता से प्रस्तुत हुए हैं। अपनी मिटटी की खुशबु सबको अपनी ओर सदैव खींचती है। हम सब को अपनी मातृ भूमि प्यार से होता है जिस पर हर देशवासी मर मिटना चाहता है ,वही भाव तिब्बत के लोगों में है जिसे “ तेरी मिटटी में मिल जावां ...” गीत से अंतिम दृश्य में व्यक्त किया गया है।
नाटक के कथानक का संबंध उन सभी देशों के लोगों की पीड़ा और संघर्ष से है जो अपनी स्वायतता या आज़ादी की लड़ाई किसी भी तरह लड़ रहे हैं। इस मायने में इसका कैनवास बड़ा है। कथानक को अपने निर्देशकीय कौशल से सुमित श्रीवास्तव से बहुत खूबसूरती से पेश किया है यदपि सामान्य दर्शक एकदम से कनेक्ट नहीं कर पाता क्योंकि ज्यादातर राज्य के लोगों के मन में तिब्बती लोगों की छवि तिब्बती दुकानदार वाली ही अंकित है।
सुमित ने अपनी कल्पना से शैडो तकनीक और पेनल्स से बहुत खूबसूरत दृश्य रचे हैं। जेम्पा के चरित्र के यथार्थ ,स्वप्न और उम्मीद के भावों को अच्छे से पेश किया गया। नाटक में तिब्बतियों का अहिंसक आन्दोलन और निर्वासन का तनाव प्रयोगशीलता से बराबर बना रहता है। नाटक दर्शक के मन में प्रश्न जगाने में कामयाब रहता है। तिब्बती संघर्ष को नए ढंग से देखने के लिए प्रेरित करता है साथ ही उनके प्रति सहानुभूति भी पैदा करता है। यह उपन्यास की भाषा और कंटेंट की ताकत का आभास कराता है। शैज़ खान ने सितार ,बांसुरी और चीनी बाउल से भावपूर्ण संगीत से अनुकूल वातावरण पैदा किया है जिससे तिब्बती संस्कृति की झलक मिलती है। वेशभूषा चरित्रों के अनुरूप थी खास कर बोद्ध भिक्षुओं को परंपरागत लाल वस्त्रों में दिखाया गया है और उनके मुंडे हुए सिर चरित्र को जीवंत बना रहे थे। सोनल कुशवाहा (देवयानी) नीलम सिंह (माई दोलमा तथा भिक्षुणी), उमेश भाटिया (गेशे जम्पा ), आयुष सिंह (अध्यक्ष ) तथा अरविन्द राय (छेरिंग ,मग्पा) ने सशक्त अभिनय किया। प्रकाश योजना प्रभावोत्पादक रही। नीली, दूधिया, पीली और लाल रंगों की लाइट्स का प्रयोग अच्छा और उपयुक्त था। सेट के नाम पर तीन ब्लॉक्स का इस्तेमाल किया गया वह दृश्य निर्मिती में कामयाब रहा। प्रोडक्शन मैनेजर अमित अग्रवाल और आर्ट निर्देशक साहेब कुमार सौरभ भी बधाई के पात्र हैं। फोटो साभार अमन आलम।
आशा जल्द ही सब सामान्य हो जाएगा और ये नाटक पुनः मंच पर लौटेगा। बहुत जरूरी है।
हृदय से आभार आपका।
ReplyDeleteBahot hi Sundar lekhniye hai aapki bhaiya 🙏😊
ReplyDeleteWONDERFUL
ReplyDeleteBahut khub lekhni dada
ReplyDeleteExcellent classic play
ReplyDelete