'अभिनय के लिए सही परिभाषा नहीं ढूंढ पा रहा हूँ-श्री उर्मिल कुमार थपलियाल"

   उर्मिल सर से जब वर्धा में मिलना हुआ 

अभिनय, शब्द में जादू है। सब करना चाहते हैं। करते है। कर रहे हैं। शेक्सपियर की जुबानी कहें तो 'जीवन एक रंगमंच है और हम सभी अपनी अपनी भूमिका अदा कर रहे हैं"। कुछ लोग अभिनय करते हुए प्रसिद्ध होना चाहते है। कुछ केवल आनन्द तो कुछ इसके माध्यम से जीवन और मृत्यु के रहस्यों तक को सुलझाने का विकल्प ढूंढने में प्रयासरत हैं।

अभी अभी काशी के प्रख्यात कलाविद डॉ गौतम चटर्जी ने अपने ऑफिशियल यूट्यूब चैनल में भारत के जानेमाने रंग विद्वान श्री उर्मिल कुमार थपलियाल से लिये गए साक्षात्कार का एक लघु संस्करण प्रसारित किया है। जो एक अभिनेता के लिए महत्वपूर्ण है। यूं भी सही मायने में अभिनय विषय को लेकर बहुत कम ही चर्चा-परिचर्चा होती है। क्योंकि सभी करने में दिलचस्पी रखते हैं। सुनने-समझने-सीखने में समय व्यय करना जरूरी नहीं समझते। ऐसे में इस तरह की रसद एक अभिनेता को समृद्ध करेंगी।

लगभग छः मिनट के इस फ़िल्म का आरंभ श्री उर्मिल कुमार थपलियाल अपने किताबों के संग्रह से एक पुस्तक निकलते हुए - सरीखे दृश्य से होता है [जैसे सत्यजीत रे साहब की चारुलता फ़िल्म में नायिका माधवी (जिनका कल जन्मदिन था) अपने विशाल भवन में घूमते हुए अपने किताबों की अलमारी से गुनगुन करती हुई पुस्तक निकलती है]। उर्मिल साहब भी किताब निहारते हुए कविता गुनगुना रहे हैं। नेपथ्य से उन्हीं की आवाज -रंगमंच की सबसे बड़ी बाधा अभिनेता को ही मानता हूं। क्योंकि अभिनेता ही ने मंच लुटा है। ये मैं एक निर्देशक के तौर पर बोल रहा हूँ।

सिन डिजॉल्व होने के साथ ही सितार का सहज प्रवेश

कुछ पल बाद स्याह पर्दे पर उभरता है

विचार - अभिनेता की प्रस्तुति 

उर्मिल साहब दिखते हैं और ...

नेपथ्य से प्रश्न : आपका पूरा जीवन अभिनय पर केंद्रित था। अभिनय पर आप कैसे सोचते हैं? 

(श्री गौतम की एक ख़ास बात यह है कि वो एक ऐसा प्रश्न कर छोड़ देते है कि वक्ता लम्बे समय तक बोलने-सोचने और अपने बीते जीवन में जीने के आनन्द के दुबारा जीते हुए उनमें संग्रहित अपने अनुभवों की मोतियों को परोसने में तल्लीन हो जाता है।)

उर्मिल साहब : नहीं, मैं थोड़ा सा ये कहूंगा कि  रंगमंच में अभिनय चूंकि एक पार्ट है उसका मेरा शुरू का जीवन खैर अभिनेता के ही तौर पर शुरू हुआ था। लेकिन आगे चलकर जो ये 50-55 वर्ष बीते हैं, तो उस जीवन में अभिनय केवल एक अंग रहा। अभिनेता के तौर पर नहीं एक निर्देशक के तौर पर और मुझे लगा अपने व्यावहारिक अनुभवों से निर्देशक के तौर पर उसका लेखन भी उसका प्रस्तुतिकरण भी, उसकी व्याख्या भी, जो कथानक है या जो नाटक हमने लिया है उसको लिए इंटरप्रिटेशन क्या है मेरा। उसके साथ ही एक अंग अभिनय भी। लेकिन जीवन के शुरुआत में मैंने जो लोकजीवन से की है रामलीलाओ में एक पूरा बचपन एक तरह से बिताया वो अनुभव बिल्कुल अलग हैं। वो उतने परिभाषित या उस तरह से व्याख्या करना तो बहुत मुश्किल है। क्योंकि उनके पास कोई शब्द नहीं है। उनकी कोई लिपि नहीं है।  उनकी कोई भाषा नहीं है। उनका कोई इतिहास नहीं है। वो थियोरी भी नहीं है, लेकिन सब मिलकर यदि मैं एक शब्द में कहूँ तो मैं अपने अभिनेता से ये चाहता हूं हमेशा मुझकों नहीं मालूम आप उसको अभिनय की परिभाषा के अंतर्गत लाएंगे या नहीं लाएंगे। ये आपकी शक्ति भी हो सकती है, ये आपकी सीमा भी हो सकती है। लेकिन मैं अभिनेता से ये चाहता हूं या उसे कहता हूं कि Don't act. Please be there. स्वयं को अनुपस्थित करके केवल भूमिका को उपस्थित करना, मुझें नहीं पता कि मैं सही शब्द बोल रहा हूँ कि नहीं। लेकिन please be there का अगर कोई भी अर्थ हो सकता है या don't act अभिनय मत करो... 

अब आप जैसा गुणी और इतना पढा लिखा आदमी जो कह रहे हैं उसका अर्थ आप जरूर मैं क्या कहना चाहता हूं या क्या नहीं कह पा रहा हूँ ... पहला तो आपने अभिनय के बारे में जो पूछा अब मुझें ये नहीं पता कि आप उसमें लिप्त हो जाओ या पात्र को ... पात्र भमिका को invite करे या भूमिका पात्र के invite करे या कोई किसीको invite न करें आप जो मन में आये करते चले जाओ ... मुझें नहीं मालूम कि इन सब में क्या बात है। लेकिन सहजता ... मैं सरलता की बात नहीं कर रहा हूँ ... एक एब्नॉर्मल हो के अभिनय करना ... उसको आप लाउड नहीं कहंगे ... एक एब्नॉर्मीटी एक असामान्य तौर पर अभिनय अक्सर मैंने ... जो भी मैंने देखें हैं, एक एब्नॉर्मल अभिनय है। आप जीवन में जितने नॉर्मल हो सकते हैं, उतने आप अभिनय में नहीं हो पाते। क्योंकि जैसे आप मुझें ये मेरा फोटो खींच रहे हैं, मेरे शूटिंग कर रहे हैं, कैमरे के पीछे आप हैं। अगर ये दृश्य मुझें मंच पर दिखाना हो तो मैं थोड़ा सा जीवन से असामान्य हो जाऊंगा। मैं थोड़ा सा उसको ... इधर देखो .. उसकी ब्लॉकिंग करूँगा ... उसकी एरेन्जिंग करूँगा ... थोड़ा लाऊड बोलूंगा... थोड़ा सा प्रोजेक्शन लाऊंगा। क्योंकि जीवन दर्शनीय है और अभिनय प्रदर्शनीय है। 

तो अगर हम अभिनय का एक्जीविशन कर रहें है, तो मुझें नहीं पता कि वो अभिनय है या नहीं है। कभी-कभी तो ... जैसा मैंने आपको बताया था कि रंगमंच का जो अभिनय है वो जीवन के अभिनय से दो कदम आगे है। ये माना जाता रहा है कि दोनों के अंदर जीवंतता का गुण है, जीवन में भी व्हाट नेक्स्ट और अभिनय में भी व्हाट नेक्स्ट। क्योंकि दोनों में ही समान गुण है। दोनों जीवंत है। इसलिए शायद रंगमंच जीवन के अधिक निकट है बजाए अन्य कला विधाओं के। आप ... जो रंगमंच में है या जीवन में है और जो अभी हो रहा है उसको आप न रिवाइंड कर सकते हैं और न ही फास्ट फॉरवर्ड कर सकते हैं... वर्तमान ही है ...। उस वक्त अभिनेता का न कोई भविष्य होता है और न कोई भूत होता है। होता है तो सिर्फ वर्तमान। वर्तमान में भी सिर्फ उतनी स्पेस जितने में उसके पाँव जमीं से टिके हुए हैं। उसको न तो कोई एरेन्जिंग चाहिए न कोई ब्लॉकिंग चाहिए। उसे एक सहजता चाहिए जो मुश्किल से सन्यासियों को, ऋषियों को और शायद दार्शनिकों को मिलती है। इसीलिए मुझें कभी लगता है कि अभिनय का दर्शन होना चाहिए, अभिनय का प्रदर्शन नहीं होना चाहिए। और ये क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए ... इसको मैं तय नहीं कर पाता। लेकिन अभिनेता का.. मैं अभिनय के लिए सही व्याख्या, सही परिभाषा नहीं ढूंढ पा रहा हूँ।


 काशी के विद्वान परम्परा का निर्वहन करते हुए डॉ गौतम चटर्जी ने एक लंबा समय समाचार पत्रों में व्यतीत किया है। वहां भी उन्होंने कला संस्कृति को ही अपने लेखन का आधार बनाया। और कला पर लिखना आरम्भ किया। कला के लगभग सभी आयामों पर लेखन करते रहें, और विद्वानों के संसर्ग में सतत रहने की अभिलाषा को तृप्त करते रहें। अपने जीवन का पहला अनौपचारिक साक्षात्कार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का लिया। औपचारिक पहले साक्षात्कार का शुभारंभ हुआ प्रख्यात दार्शनिक जे कृष्णमूर्ति से।

यहीं से शुरुआत हुई साहित्य, संगीत, सिनेमा, रंगकर्म और चित्रकला से जुड़े लोगों के साथ संवाद की. निर्मल वर्मा, धर्मवीर भारती, सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल, क्रिस्टफ किस्लॉव्स्की, उत्पल दत्त, बादल सरकार, गंगुबाई हंगल, कुमार गंधर्व, सितारा देवी, मल्लिकार्जुन मंसूर, अली अकबर ख़ाँ, शर्बरी रायचौधरी उन इक्कीस चुनिंदा नामों में से हैं, जो अपने फ़न के माहिर हैं।

अपने ही जीवन में लेजेंड बन गये कुछ हस्तियों से साक्षात्कारों को ‘शिखर से संवाद’ नाम की किताब में संकलित किया गया है। जिसे लिया है डॉ गौतम चैटर्जी ने जो खुद एक कलात्मक नज़र रखते हैं। लघु फ़िल्मे बनाना जिनका पेशा न होकर जुनून है। इन्हीं लघु फिल्मों में से एक उर्मिल कुमार की है जिसकी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं। जिनके अलावा भी कई विद्वानों से लिये गए साक्षात्कारों की लघु फिल्में भी देखने को मिलेंगीं। जैसे पण्डित रेवा प्रसाद द्विवेदी, राजन मिश्र- जिनका सद्य ही निधन हो गया। विदुषी गिरिजा देवी (गायन), विदुषी कृष्णा चक्रवर्ती (सितार) आदि। डॉ गौतम चटर्जी को सक्रिय रहने पसन्द है।काम की मात्रा कम होना उन्हें सुहाता नहीं तो वे कविता लिखते हैं, अभिनय करते हैं, नाटकों के लिये वर्कशॉप करते हैं, ऑनलाइन क्लास भी लेते हैं और देश भर में घूमकर  नाट्यशास्त्र, सिनेमा और साहित्य पर भाषण भी देते हैं। उनका कहना है कि साहित्य, विज्ञान और दर्शन के अलावा उन्हें कोई तीसरा विषय नहीं आता नतीजतन वे न तो प्रख्यात हस्तियों से अपने संबंधों का फ़ायदा उठा पाते हैं न चाहते ही हैं और न ही अपने काम का प्रचार - प्रसार उनकेे स्ववभाव मेें। 

‘शिखर से संवाद’ के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं—

धर्मवीर भारती — हिंदी के साहित्यिकों को दो काम करना होगा. एक तो यह कि तात्कालिक महत्व और सतह की विषय वस्तुओं का लोभ त्याग..दूसरा यह कि जल्दी प्रसिद्ध होने, जल्दी कवि या कथाकार हो जाने और पुरस्कार आदि पाने की होड़ से अपने को अलग करना होगा।

क्रिस्टफ किस्लॉव्स्की — फिल्मकला गणित की तरह एक लिबरल आर्ट है।

प्रश्न - यदि फिर से जीवन मिले तो कहाँ से शुरु करेंगे ?

सत्यजीत रे ‌‌-- जीवन से... बिंबों मे सोचना मेरी भाषा है। यह भाषा मुश्किल से अर्जित करनी पड़ती है. फिर अपनी भाषा की निर्मिति होती है। उसी के मुताबिक़ शूट करना पड़ता है। 

श्याम बेनेगल — अँकुर बनाए मुझे तीस साल से अधिक हो गये लेकिन लगता है कि अँकुर अभी हुआ है, पौधा होता हुआ, वृक्ष कभी बन सकेगा।

उत्पल दत्त — रंगकर्म अख़बार नहीं है क्योंकि उसके साथ कला की स्थिति भी जुड़ी हुई है। वह कलामाध्यम है। इस कलामाध्यम से आप अपना विचार व्यक्त  कर सकते हैं.

कुमार गंधर्व — हर कलाकार को बारह सुरों ( सात शुद्ध, एक तीव्र और चार कोमल स्वर) में से यह जानना होता है कि कौन सा सुर उसके बिल्कुल क़रीब है. उसका अपना है। अपने स्वभाव और कंठ के गुणधर्म के बिल्कुल पास है. फिर उसे अपना बनाना भी होता है। ........ हर स्वर वास्तव में ह्रदय है। गायक में बारह ह्रदय होते हैं और इसीलिये उन्हें सँभालने के लिये उसका ह्रदय बड़ा होना चाहिये नहीं तो उसकी कला की चमक फीकी पड़ जायेगी।

मल्लिकार्जुन मंसूर — किसी को भी बेसुरी चीज़ पसंद नहीं आती. बेसुरा जीवन बेसुरे समाज की स्थापना करता है। सुर की समझ हो तो जीवन और समाज दोनों सुर में होंगे।

अली अकबर ख़ाँ— मौत फिर एक ज़िंदगी लेकर हाज़िर होती है ! इसीलिये सरोद के घर में रहता हूँ और जागता हूँ।

सितारा देवी — नृत्यकला औरत की सबसे पुरानी सभ्यता है. कला ने ही उसे सभ्य बनाया है. आदमी ने नहीं। आदमी ने ख़ाली क्रेडिट लिया है. पहले वह खुद तो सभ्य बने। कला ही इंसान को जीने की तमीज़ देती है और इस कला में औरत आदमी से भी पहले है इसलिये उसकी सभ्यता की दास्तान सबसे पुरानी है।

गंगूबाई हंगल — ( ये पूछे जाने पर कि कौन से राग पक्का करना है अभी। उस समय उनकी उम्र 92 वर्ष की थी।) इमन, तिलक, कामोद, तोड़ी, मालकौंस, जोग, ललित, सोहनी, विभास. इस ज़िंदगी में इतना ही हो जाए तो बहुत है।

अपनी कला के शीर्ष पर बैठे इन लोगों से साक्षात्कार की किताब का नाम ‘शिखर से संवाद’ ही हो सकता था और ऐसे स्तरीय और उच्चमान के साक्षात्कार लेने वाले विज्ञान, दर्शन, साहित्य, संगीत, और फ़िल्मों में बराबर दखल रखने वाले नाट्यशास्त्र के गंभीर अध्येता काशी के कलाविद गौतम चैटर्जी ही हो सकते थे, वही जिन्होंने चौदह साल की उम्र में सत्यजीत रे को अपनी जिज्ञासा और प्रतिभा से इतना प्रभावित किया कि दो तीन साल बाद जब दुबारा 'जॉय बाबा फेलुनाथ' निर्माण के समय मिलना हुआ, तो मानिक दा ( रे ) ने उन्हें पहले औपचारिक संवाद के लिये लॉज में आने को कह दिया।

Comments

Popular posts from this blog

আচার্য ভরত প্রস্তাবিত অভিনয়রীতি

लघु कथा ' अपमान '