लघु कथा ' अपमान '
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ट्रेन का वह डिब्बा जहां अलग अलग कमरें से माहौल होता है। जिसमें चार लोग ही समा सकते हैं। जहां होने का मतलब ही यह दर्शाता है कि आप इस देश के महत्वपूर्ण नागरिकों में से एक है। इस डब्बे में आम लोगों का होना स्वप्न से होता है। पर ऐसा आज हुआ। रेल के उस विशेष डब्बे के खास कमरों में से एक में आज एक अदना रंगकर्मी को जाने का मौका मिला था। रंगकर्मी अंदर ही अंदर खुश था। इतना खुश जैसे बम्बई के ताज होटल में स्वीट रूप में आ गया हो। ट्रेन में भी ऐसा होता है, उसने ऐसा सुना ही था। कोरोना के चलते साफ सफाई का आलम और तगड़ा। कुछ देर गुजरने के बाद उसे लगा कि ये सब आडम्बर ही है। पैसों की बर्बादी।
सफर तो थर्ड क्लास में भी हो सकती है। सफर ही तो करना है। बुर्जुआवर्ग ने माहौल ही बिगाड़ रखा है। जिस वर्ग के विरोध में वह आजतक रंगमंच पर उतरता रहा है। आज खुद वह उस वर्ग में शामिल हो गया है-ऐसा विचार उसके मन में और पुख्ता हो गया। जब सेल्फी लेकर सोशल मीडिया में साझा करने का भी एकबारगी लोभ हो चला। यह तो हद है।
ट्रेन के चलने का वक्त हो चला है। पर सह यात्री कोई नहीं। चलो अच्छा ही है। एकांत। सम्पूर्ण पर एकाधिकार। जब जिस सीट पर मन करे बैठों-जब जहां मन करे सो जाओ। कभी ऊपर वाले पर तो कभी नीचे। एक रात के लिए तो यह पूरा कमरा अपना हुआ। ... कैसे कैसे स्वार्थी विचार आने लगे। वह जैसे उसका गुलाम होता जा रहा है। शोषक वर्गीय स्वभाव के अंकुर उसमें फूटने लगे हैं। सबकुछ पर अपना हक। एकाधिकार। राजत्व।
(जारी)
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