मुरीद

मुरीद 

  पप्पू आज कई दिनों से परेशान है। अलसुबह जिस नित्यकर्म को उसने अपने जीवन में बड़ी मुश्किल से जोड़ा था। महीने भर में ही टूटने को है। पर पप्पू दृढ प्रतिज्ञ है। पन्द्रह दिनों से लगातार नियत समय पर भोलू चाचा की दुकान आ जाता है। गांव में परचून की दुकान तो पांच-छः है; पर चाचा की बात ही निराली है। ग्राम प्रधान होने के नाते लोगों की भीड़ लगती है -  ऐसा नहीं है। सुबह-सुबह का अख़बार लोग यहीं पढ़ना पसंद करते है। देश-दुनिया की खबरों से वाकिफ होते है। इधर पिछले कई दिनों से लोगों के हाथ निराशा लग रही है। अख़बार आता तो है, पर कोई भोलू चाचा की नज़र बचाकर ले जाता है। अब चाचा दुकान सम्हाले या अख़बार !

 पप्पू अनपढ़ है। सभी समझते है - उसे अख़बार में क्या देखना पसंद है। किशोर अवस्था में मन चंचल होना स्वभाविक है। और इन्हे प्रोत्साहित करने में ही अख़बार को अपना हित नज़र आता है। पप्पू के आते ही लोग अपने-अपने हाथों में थामे अख़बार की पृष्ठों को एकत्रित कर उसे दे देते है। वह भी अपनी पसंद की विषय पर नज़रें बिछाय थोड़ी देर मौन रहता है। इस कृत्य पर न जाने किसकी नज़र पड़ गई। 

पप्पू गांव से पाँच किलोमीटर के दायरे में जिनके भी यहाँ अख़बार आता है - पता लगाने की कोशिश करता है; तो पाता है कि सभी के पास से प्रकाश ये बोलकर अख़बार ले गया है कि उसे विशेष काम है। " तुझे अख़बार से क्या काम ?…प्रकाश ले गया है …पढ़ता-लिखता है ....प्रतियोगी परीक्षाओं में अख़बार बड़े काम की चीज है… और तेरे काम की उसमे बस उलटी सीधी तस्वीरें ही तो होती है .... चल जाकर खेत में हल चला जाहिल कहीं का" वाक्य पूरा होते ही दरवाज़ा तड़ाक  से बंद हुआ पप्पू के आखरी आस की मकान का। वह वैसे ही जड़ सा खड़ा रहा। 

कुछ दिन पहले इस देश में यह शोर मचा था कि अपढ़ आदमी बिना सिंग-पुंछ का जानवर होता है। उस हल्ले में अपढ़ आदमियों के बहुत लड़कों ने देहात में हल और कुदाल छोड़ दी साथ ही स्कूलों पर हमला बोल दिया। शिक्षा के मैदान में भभ्भर मचा हुआ था। अब कोई यह प्रचार करता हुआ नहीं दिख पड़ता था कि अपढ़ आदमी जानवर की तरह है। बल्कि दबी जबान से यह कहा जाने लगा था कि ऊँची तालीम उन्ही को लेनी चाहिए जो उसके लायक हो। इसके लिए 'स्क्रीनिंग' होनी चाहिए। इस तरह से घुमा फिराकर इन देहाती लड़को को फिर से हल की मुठ पकड़ा कर खेत में छोड़ देने की राय दी जा रही थी। 

अचानक उसदिन गांव के स्कुल में भीड़ की जमात के बीच जिस युवक को देखा, उसकी बात ही निराली थी। लोग उसे न सिर्फ घेरे खड़े थे; बल्कि अपना दुखड़ा बड़े अपनत्व से सुना रहे थे। वह भी बड़ी तन्मयता से सबकी बात सुन रहा था। वहां से वो गांव की सैर को निकला। उसदिन भोलू चाचा की पगड़ी किसी मुकुट-सी  दमक रही थी। कड़क साफ़ा की कड़कड़ाहट आस-पास के बीस-पच्चीस गांव तक सुनाई दे रही थी। इन सब के बीच पप्पू अपने खेत में ही सिमट कर रह गया। भर-दोपहर घर पास उमड़ी भीड़ को देख उसका दिल बैठ गया - किसी अनहोनी की दस्तक में। साँस-बांधे जब वह भीड़ से जगह बनाते घर की दुआर तक पंहुचा तो पाया स्कुल का मजमा अब उसके घर पर लगा है। लोग युवक को वहाँ से लगातार चलने का अनुरोध कर रहे हैं। पर वो तो दादी के संग बात करने में ही दिलचस्पी दिखा रहा है। इतने में दादी की धुंधली नज़र पप्पू पर पड़ी, उसे अपने पास  आने का इशारा किया। पास जाने पर युवक से परिचय करवाया। युवक ने सहर्ष अपना हाथा बढ़ाते हुए उसका नाम पूछा। पप्पू का दिमाग न जाने क्यों ठप्प हो चूका था। शायद वो इस अप्रत्यासित परिस्थिति के लिए तैयार नहीं था। तबतक अम्मा भी पांव छूने की आज्ञा दे चुकी थी। पप्पू ने यन्त्र-मानव सा माँ की आज्ञा का पालन करना उचित समझा। हकलाते हुए ही नाम 'पप्पू' बताया। युवक के अगले प्रश्न " पढ़ते हो ?" से पप्पू का हलक उसका साथ छोड़ गया। कुछ देर की ख़ामोशी तब टूटी जब युवक ने कहा "पढ़ा करो "। इस वाक्य में न जाने क्या था कान के पर्दो से ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता जाता; त्यों-त्यों सन्नाटा गाढ़ा करता जाता। अब हालात ये थे कि लोगों के हाथ-पाँव-मुँह हिल तो रहे थे, पर पप्पू का कान सन्न मार गया था।  यहाँ तक दादी की फोफळी गालों से होती हुई, बाहर आती उनकी हाँफती हँसी की आवाज़ भी उस तक पहुँचने में ना-काम सिद्ध हो रही थी। 

आर. गांधी गांव से चले गए पर पप्पू को अपना मुरीद बना गए। पप्पू उनका अनन्य कायल हो गया और अखबारों के पन्नो में उनकी ही तश्वीर ढूँढना, अपने नित्यकर्म में शामिल कर लिया। पर इस प्रकाश के बच्चे ने उसके नित्यकर्म में बाधा पहुचाई है। 

प्रकाश कॉलेज में  है। उसका कॉलेज शहर में है। इसलिए उसे तड़के ही निकलना पड़ता है और देर शाम घर वापस लौटता है। आज लौटने में अधिक समय लग गया। वह अब तेज क़दमों से घर की ओर लौट रहा है कि भोलू चाचा की दुकान के पहले ही किसी ने उस पर झपट्टा मारा । अचानक हुए इस हमले ने उसको जमीं पर दे पटका, इतने में ही शरीर के और भी हिस्सों में दर्द जम गया। चीख निकल गई। आवाज़ भोलू चाचा के कानो तक भी गई। भोलू चाचा के ही कारण प्रकाश से उस बला को हटाया जा सका। बला प्रकाश से छूटकर भी उसकी ओर लपकने को छटपटा रहा था। जबकि प्रकाश कराह रहा था। उसके ओठ से द्रव्य सा कुछ रिस रहा था। शायद खून। 

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