Ashok Sagar Bhagat in varanasi

प्रकाश के मंद होने के साथ-साथ नाटक के अंतिम दृश्य का कृष्णगहवर में विलय। हॉल स्तब्ध। कम्प्लीट एफेक्ट। नाट्य मंचन की सार्थकता पर मुहर। उक्त सुखदानुभूति का सपना हर रंगकर्मी आजीवन गुनता रहता है। सन २०१० में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्वतंत्रता भवन में "ललदद " नाट्य मंचन के दौरान अभिनेत्री मीता वशिष्ठ भी ऐसी अनुभूति से मुखातिब हुई। काश्मीरी साध्वी लल्लेश्वरी के जीवन वृत्त को आवृत्त उन्होंने अपने शसख्त अभिनय से किया। संतों की नगरी काशी ने काश्मीरी फलसफों को सिरोधार्य किया, साथ ही अभिनेत्री को बधाई हेतु मंच पर उमड़ पड़े। "ललदद " प्रस्तुति को सफल बनाने में एक शक्श को उतना ही श्रेय जाता है, जितना सुश्री वशिष्ठ को; वो है भारत के जानेमाने लाइट डिज़ाइनर व प्रक्षेपक श्री अशोक सागर भगत। प्रस्तुत है उनसे हुए संवाद के कुछ अंश -

- ऐसी परिस्थिति को सर आप कैसे लेते है ?

- प्रकाश उपकरणों को समेटना बीच में ही रोककर " जी कैसी परिस्थिति को !

- दर्शक मीता जी को घेरे हुए है और आप … मतलब आप भी तो एक परफ़ॉर्मर है … ?

- (हंसकर) समझा … देखिये इंसान की फितरत दो तरह से देखने को मिलती है। introvert और extrovert। हम कलाकार भी अपनी कला से खुद को वैसे ही व्यक्त करते है। अतः मंच-पर जो कलाकार दीखते है उन्हें आप एक्सट्रोवर्ट कह सकते है और मंच-परे कलाकारों को इंट्रोवर्ट। इससे दोनों का श्रेय कम या ज्यादा नहीं होता और न ही कार्य में फर्क पड़ता है। जाहिर सी बात है एक्सट्रोवर्ट से सभी प्रभावित होते है, मिलना चाहते है। इंट्रोवर्ट ज्यादा घुल-मिल नहीं पाता (नटखट मुस्कान चहरे पर खेल जाती है)। अपने कला-क्षेत्र में भी वैसा ही है। आपने कला का जो माध्यम चुना है, उसकी सीमाओं से भी आपको संतुस्ट होना होता है। दोनों की ही अपनी भूमिका है। अभिव्यक्ति है। गरिमा  है।  

- अपने नाट्य-प्रकाश-संयोजन को दूसरे प्रकाश संयोजकों से कितना इतर  पाते है ?

- जिस प्रकार राग एक होते हुए भी हर गायक का उसे प्रस्तुत करने का ढंग या शैली निराली होती है; ठीक वैसे ही हमारे शिल्प में भी कोई रंगों पर जोर देता है तो कोई अँधेरे को ही ज्यादा महत्व देता है। 

- आपको क्या पसंद है रंग या अँधेरा … 

-  मेरी रूचि इतनी होती है कि मंच पर जो भी कलाकार हो वो साफ-साफ दर्शको को दिखे। सिर्फ दिखे ही नहीं बल्कि उसकी हर मुद्रा, छोटी-से-छोटी ही सही, दर्शकों तक गहराई से पहुंचे। साथ ही स्क्रिप्ट के भाव से जो मन के पटल पर 'आर्च' बनते-बिगड़ते है, उनको अपने प्रकाश के माध्यम से उकेरने की कोशिश करता हु। 

- श्री खालिद चौधरी भी सेट-डिज़ाइन के समय इस 'आर्च' वाली बात पर खास ध्यान रखते है। 

- हाँ उनके कामों में ये स्पस्ट रूप से दिखता है। 

- आप तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से है; हिंदी रंगमंच का भविष्य  कैसा देख रहे ?

- परजीवी होकर जिंदगी जीना या किसी पर निर्भर होकर जीवन-यापन ठीक नहीं। 

- स्पस्ट करे 

- जब तक हम किसी सरकार या संस्था के आसरे रहेंगे तब तक ऐसा लगता रहेगा कि कुछ हुआ  नहीं।  ऐसे में अपनी पहल ही ज्यादा मायने रखती है।  इस नज़रिये से हिंदी रंगमंच का भविष्य उन्नत है। 






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