अरे तरी ; सपाक से सरक जाएगी !
मामले को जरा सुलझा कर कहता हूँ . कुछ ही दिनों पहले शहर की नई नवेली मौल में फुर्सत के चंद पल गुजार रहा था ( झुलसती गर्मी से फोफ्ले पड़े तन में मुफ्त की ए.सी. के ठंडक का लेप चढ़ा रहा
था .) पर ये क्या एक नज़ारे की तपिस ने अपनी नजरे सकने को मजबूर कर दिया . जाहिर है नजारा
रंगीन था . सीढियों पर दो आधुनिकता की प्रतिरूप बालाएं ( आधुनिकता की झलक उनके कपड़ो से
मिल रही थी ) बैठी आपस में बाते कर रही थी . मेरी दिलचस्पी उनके लिबास पर थी . उनमे से जो
उकडू होकर बैठी थी जिसकी छोटी सी कमीज असमान छूने को व्याकुल तो दुसरे की ट्राउजर,
जमीं में धसने को आतुर . कमल है इतनी निचे, सरक गई तो .... आंखे उस पल की कल्पना से
सिहर उठा और तन पापड़ के जैसा हल्का हो लहराने लगा . अपनी हालत को तब समझा जब बगल
से एक आंटी मुझे धकियाते हुए उन तक पहुची, उनसे मुखातिब हो बोली,"जरा सम्हाल कर बैठो"
वो दोनों फटी हुई नजरो से "क्यों"
आंटी से रहा नहीं गया, उनके कानो में ओठ सटाकर कुछ हिदायत दी .
आंटी की बात सुन दोनों खिलखिला उठी . सम्हालते हुए बोली "आंटी ये लो वेस्ट जींस है ...
थोडा बहुत तो ... ये ही फैशन है . आप फिक्र न करे कुछ नहीं होगा."
थोडा बहुत तो ... ये ही फैशन है . आप फिक्र न करे कुछ नहीं होगा."
फैशन के नाम पर ब्रा के स्ट्रेप देखने के आदि तो हम हो ही चुके थे पर जींस के भीतर से झाकती केयरफुली केयरलेस पैंटी ? हरे-हरे, हरे-हरे ! वो भी काशी में ! तो क्या अब हम काशी में उन नजारों
को देखने से मरहूम रह जायेंगे ? वो सावन के झूले, झूलो में झूलती नवयौवनाए; जो अपने को पूरी
तन्मयता से सवारती-लजाती-सकुचाती-इठलाती-खिलखिलाती थी .क्या वही शर्म-ओ-हया की देवीया रूप
बदलकर इतनी उन्मुक्त हो गई ! पर जो भी हो इस खुलेपण में छिछलापन है, कौतुहल नहीं .तिरछी
आखो से, सबसे नजरे बचाते, लुका-छिपी के दीदार में जो मजा है, वो इस खुलेपन में कहाँ ?
फैशन अपना रंग बदले . बदलाव ही प्रकृति है . पर बदलाव का रुख यदि आदि-मानवता की ओर है तो;
शायद बदलाव, बदलाव नहीं ; पिछड़ापन है .या यों कहे पिछड़ेपन की काया में उत्तर-आधुनिक पजामा है .
को देखने से मरहूम रह जायेंगे ? वो सावन के झूले, झूलो में झूलती नवयौवनाए; जो अपने को पूरी
तन्मयता से सवारती-लजाती-सकुचाती-इठलाती-खिलखिलाती थी .क्या वही शर्म-ओ-हया की देवीया रूप
बदलकर इतनी उन्मुक्त हो गई ! पर जो भी हो इस खुलेपण में छिछलापन है, कौतुहल नहीं .तिरछी
आखो से, सबसे नजरे बचाते, लुका-छिपी के दीदार में जो मजा है, वो इस खुलेपन में कहाँ ?
फैशन अपना रंग बदले . बदलाव ही प्रकृति है . पर बदलाव का रुख यदि आदि-मानवता की ओर है तो;
शायद बदलाव, बदलाव नहीं ; पिछड़ापन है .या यों कहे पिछड़ेपन की काया में उत्तर-आधुनिक पजामा है .
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