भारतीय मूकाभिनय के नक्षत्र : पद्मश्री निरंजन गोस्वामी

मूकाभिनय गुरु पद्मश्री निरंजन गोस्वामी 

माइम यानी मूकाभिनय आज भारत में एक प्रदर्शन कला विशेष के रूप में परिचित है। और इस परिचिय को दिलाने में जिन भारतीय कलाकारों का अथक परिश्रम है। उन्हीं में से एक हैं निरंजन गोस्वामी। भारत सरकार ने मूकाभिनय कला के लिए उनके द्वारा किया गए योगदान को सम्मानित करने के लिए उन्हें पद्म अलंकरण से भूषित किया है।

यह जानना दिलचस्प है कि जैक्स कोपे कौमेडिया डेल'आर्टे और जापानी नोह थियेटर से बहुत अधिक प्रभावित थे और अपने अभिनेताओं को प्रशिक्षित करते समय नकाब का इस्तेमाल किया करते थे। उनका शिष्य इटेने डेकरोक्स उनसे प्रभावित था। जो आगे चलकर माइम के विकासशील संभावनाओं का विकास करने लगा और कॉरपोरियल माइम का विकास मूर्तिकला शैली में किया, प्रकृतिवाद के एक विभाग के रूप में इसे प्रतिष्ठित किया। प्रशिक्षण के तरीकों द्वारा माइम और भौतिक थिएटर के विकास में जैक्स लेकौक ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। 

भारत में माइम बीसवीं शताब्दी के मध्य में प्रचलित और पल्लवित होता गया। इस कला के वरिष्ठ शिल्पी पद्म अलंकरण से अलंकृत श्री निरंजन गोस्वामी से इस कला के बारे में जानना सुखद है। प्रस्तुत है रंगकर्मी जयदेव दास से निरंजन गोस्वामी की हुई बातचीत के कुछ अंश।

जयदेव दास : आपसे जानने की इच्छा है कि साठ के दशक से ही मूकाभिनय की चर्चा भारत में देखने को मिलता है कि प्रचलित सभी कलाओं नाट्य, संगीत, शास्त्रीय नृत्य आदि आदि से भिन्न एक विशिष्ट धारा का आरंभ देखने को मिलता है। इस विषय को आप किस प्रकार से रखना चाहेंगे? 

निरंजन गोस्वामी : दरअसल, मेरी यह विधा शौक से ही पेशा बनता चला गया। पहले - पहल अपने आनंद के लिए सीखता गया कि संवाद ना कहकर कैसे एक अभिनेता किसी विषय को या यूं कहे किसी चिंतन को आमजन तक संप्रेषित कर देता है। जिसे देख लोग आनंदित होते हैं कि किसी अदृश्य वस्तु को दृश्यगत कर देना। इस कला मध्यम को देखते ही मन को छू गया था। नाट्य धर्मी अभिनय की बात नाट्यशास्त्र में उल्लेखित है, इसकी बात मुझे बाद में पता चला।

सबसे पहले मैंने योगेश दादा का मूकाभिनय देखा था। जिसे देख मुझे बहुत अच्छा लगा। 1966 ईस्वी में जब मेरा दाखिला कॉलेज में हुआ। कॉलेज का पहला वर्ष ही था, उन्हीं दिनों रशियन दल का भारत आगमन हुआ। उस दल में चूड़ी - चूड़ी नामक शिल्पी ने माइम/ मूकाभिनय करके दिखाया था। उन्हें देखकर मुझे प्रेरणा मिली। उन्हें ही अनुकरण करने की कोशिश करता रहा। उसके बाद अरुणाभ मजूमदार को देखा कहने का आशय है परवर्ती काल में बहुतों को देखा पुनः जोगेश दादा का काम देखा देखकर खुद में ही इस शिल्प के प्रति आकर्षण महसूस करता रहा। उस समय हम किशोरों की एक मंडली हुआ करती थी। जिसमें मैं खेलकूद तथा सांस्कृतिक चर्चाओं में सक्रिय रहा करता था। मेरी उम्र सोलह वर्ष से अधिक होने के कारण मुझे ही नाटकों के लिए होने वाले अभ्यासों की देखरेख का जिम्मा दिया गया। एक दिन किसी कारण वस प्रस्तावित नाटक के नाट्य निर्देशक महाशय के आने में देर हो रही थी। ऐसे में बच्चों को शांत रखने के लिए मैंने उनसे कहा कि मैं तुम सबको एक अभिनय दिखाता हूं। मूकाभिनय। उन्हें करके दिखाया। जिसे देख उन्हें अच्छा लगा। उन्होंने बड़ों से मेरे द्वारा दिखाए गए मूकाभिनय की तारीफ की। तारीफ सुन वरिष्ठ सदस्यों ने भी मूकाभिनय देखने का आग्रह किया। वार्षिक कार्यक्रमों का निर्धारण हो जाने के बावजूद सोहनलाल बनर्जी महाशय ने मीटिंग में मेरे लिए पांच मिनट के मूकाभिनय कार्यक्रम को शामिल कर लिया। 

1966 के अंत का समय रहा होगा, उक्त उत्सव में मैंने पहली बार मूकाभिनय का कार्यक्रम प्रस्तुत किया। जिसे करके मैं रातों-रात अपने इलाके में प्रसिद्ध हो गया।हमारी संस्था बहुत बड़ी थी, 3 दिनों तक विविध कार्यक्रम होते रहें। ऐसी जगह पर अपनी प्रस्तुति देने के बाद मुझे लगा कि इस शिल्प को और बेहतर तरीके से मुझे सीखना चाहिए। सभी ने जब प्रोत्साहन देना आरंभ किया। तब मैंने अपने एक परिचित प्रदीप राय, जिन्हें में गोरा दादा कहा करता था। उनसे अपनी बात कही। उन्होंने कहा मेरे एक अनुज अरुण मजूमदार के पास तुम्हें ले जाऊंगा वह तुम्हें सिखाएंगे। मैं उस दिन का प्रतीक्षा करने लगा। दुर्भाग्य से अरुण बाबू का एक दुर्घटना में मौत हो गई। जबकि उसके पहले 6 माह तक वे कोमा में रहे और मैंने छह माह तक प्रतीक्षा ही नहीं किया बल्कि प्रतिदिन प्रार्थना करता रहा कि वह स्वस्थ होकर घर लौट आए कि मैं उनके पास विधिवत तालीम लूं। पर नियति का कुछ और निर्धारण था। वह हमारे बीच नहीं रहे। 

इसके बाद मैंने निर्णय लिया कि मैं खुद योगेश दादा से मिलूंगा और एक दिन मिलने चला गया। तब वह जनक रोड में रहा करते थे। उन दिनों मेरे पास एक साइकिल हुआ करती थी। उसीसे मैं उनके घर पहुंचा और बताया कि मैं मूकाभिनय की कला आपसे सीखना चाहता हूं। आप यदि मुझे सिखाएं तो कृपा होगी। पर पैसे ज्यादा नहीं दे पाऊंगा। उन्होंने कहा कोई बात नहीं मैं हर गुरुवार निशुल्क कक्षा लेता हूं। जो भी सीखना चाहे आ सकता है बस वही से सीखना आरंभ हुआ। इस बात को गुजरे आज लगभग 55 वर्ष का समय व्यतीत हो गए। सपनों सा लगता है।

सीखने के बाद प्रस्तुतियां देता रहा। कुछ समय बीतने के उपरांत मैंने अपनी एक मंडली बना ली "इंडियन माइम थिएटर"। पर एक बार गौर करने पर पाया कि सभी किसी न किसी का अनुकरण कर रहे हैं। जो मुझे खटकती थी। पर जब भी मूकाभिनय की प्रस्तुति को देखता तो लगता जैसे जादू का खेल चल रहा हो।

एक बात की जिज्ञासा रहती थी कि यह एक शक्तिशाली शिल्प माध्यम है तो क्या इसे सामूहिक रूप भी प्रस्तुत किया जा सकता है? मतलब नाटक की तरह। और एक कल्पना भी मन में उभरता था कि भारत एक बहुभाषिक देश होने के चलते मूकाभिनय को हर भाषा हर क्षेत्र या यूं कहें प्रत्येक लोगों तक हम पहुंचा सकते हैं।

जयदेव दास : हम भिन्न भिन्न समय में विविध रूप से सुनते हैं कि मूकाभिनय एक पाश्चात्य कला है। इस पाश्चात्य शिल्प धारा का भारतवर्ष में किसी प्रकार के प्राचीन रूप का पता नहीं मिलता है क्या ?

निरंजन गोस्वामी : मूकाभिनय या माइम वर्तमान में एक प्रतिष्ठित शब्द के रूप में प्रचलित है। प्राचीन रूप की जहां तक बात है माइम या मूकाभिनय नाम जैसा कुछ नहीं मिलता। यदि दशरूपक की बात करें या उसके बाद अष्टादश रूपक की एक तालिका जो हमें मिली है। उस ओर एक नजर दें तो दशरूपक में जिस प्रकार से सभी का अलग-अलग विवेचन हुआ है तथा जिस पर विस्तृत रूप से लिखा भी गया। परंतु उस प्रकार से अष्टादश रूपक के बारे में बहुत अधिक जानने को नहीं मिलता। उसके बाद एक और अधिक तालिका या सूची की जानकारी हमें प्राप्त हुई है जहां 30 प्रकार के उपरूपक की बात कही गई है। जिन्हें छोटी-छोटी नाटिका कही जा सकता है। गहराई से पड़ताल करने पर हो सकता है उसी किसी में इस शिल्प के बारे में उल्लेख हो। वैसे उन उपरूपकों के नाम से बहुत कुछ जानकारी नहीं प्राप्त होती। पर मेरा मानना है कि उक्त शिल्प के बारे में संभवत कुछ न कुछ होने की संभावना अभी रह जाती है। अभी भी शास्त्रों में तलाश जारी है।  

शंभू मित्र की नाट्य मंडली बहुरूपी से जुड़ना भी इन्हीं जिज्ञासाओं को मिटाने के लिए हुआ था। उनके वहां जाता तो देखता कि किस प्रकार से एक नाटक मंच अनुकूल रूप गढ़ता है। समूह में काम करते हुए किस प्रकार से प्रकाश संगीत वेशभूषा वस्त्र विन्यास आदि एक निष्पादन कर रहे हैं। मैं भी उनमें शामिल हो गया 1976 में नेशनल स्कॉलरशिप मुझे मिला। शंभू मित्र उस समय रविंद्र भारती विश्वविद्यालय के नाथ विभागीय प्रधान के तौर पर नियुक्त थे मैंने दाखिला ले लिया। आपने ग्रेजुएशन संपन्न करने के छह सात साल बाद एक रेगुलर स्टूडेंट के तौर पर। उस समय नाटक की कक्षाएं रात्रि कालीन थी, जो बदलकर दिन में हो गई। मुझे वहां पहले पहल पुस्तकों की जो तालिका दी गई। उन पुस्तकों की सूची का निरीक्षण करते हुए भरतमुनि प्रणित नाट्यशास्त्र का भी जिक्र मिला। लाइब्रेरी में जब उसे ढूंढने गया तो पाया कि हम जिसे नाटक की तकनीक कहते हैं। मूकाभिनय के कौशल के रूप में जिसे जानते हैं। उन सभी का जिक्र इस पुस्तक में है।

नाट्य शास्त्र में वर्णित लोकधर्मी और नाट्यधर्मी अभिनय की सारी तकनीकों का प्रयोग केवल भारतीय ही नहीं वरन सारा विश्व ही जाने अनजाने उनका प्रयोग करता आ रहा है। मूकाभिनय के सारे कलाकार इससे अछूते नहीं हैं। वह भी उन्हीं तकनीकों का प्रयोग कर रहे हैं। यह देख मैंने नाट्यशास्त्र में स्पेशलाइजेशन करने का निर्णय लिया और पूर्ण किया। रविद्र भारती विश्वविद्यालय फाइन आर्ट्स यूनिवर्सिटी होने से एक सुविधा भी थी जब भी क्लास ऑफ रहा करता। हम दूसरे विभागो जैसे डांस क्लास में चले जाते गुरु जी से बातें करते या संगीत विभाग चले जाते या फिर पेंटिंग डिपार्टमेंट में समय गुजारते। पेंटिंग की विशेषताओं से परिचित होते। ऐसी बहुत सी सुविधाएं मिला करती थी। मेरी उम्र मेरे सहपाठियों से अधिक होने के कारण मानसिक मेल मिलाप मैं अड़चन आती थी। क्योंकि मैं पिछले कई वर्षों से प्रदर्शन कला के अभ्यास में हूं कि बहुरूपी संस्था में भी जाना आना था कि बहुतेरे नाटक देखे होने से एक अनुभव भी हो गया था। जबकि मेरे सहपाठी अभी इस कला में पदार्पण कर रहे थे। बहुरूपी से जुड़ने का एक बहुत बड़ा कारण यह भी था कि मैंने जिस संस्था की नींव डाली है, उसके तहत नाट्य प्रस्तुति दे सकूं। जिस वजह से नाटक की शिक्षा जरूरी है। पर दिक्कत यह थी कि मुख्य नाटकों का रूप निर्धारण क्या होना चाहिए यह मेरे लिए तब तक चुनौती सा था।

जारी ...



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