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Showing posts from 2021

पूर्वांचल के ओजपूर्ण निर्देशक-अमर दुबे

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  बात जब फिल्मों की ही हो तो मुख्यधारा के फिल्मों की ही होती है। मतलब हिंदी फिल्में। हिंदी भी कहना गलत होगा। कहना होगा बम्बईया फिल्में। अखबार उठाकर देखेंगे या टेलीविजन तो यही बात आपको भी नजर आ जाएंगी। गैर हिंदी या क्षेत्रीय सिनेमा नदारद मिलेंगे। जबकि विश्व सिनेमा के प्रतिस्पर्धा में भारतीय सिनेमा को दर्ज क्षेत्रीय सिनेमा ने ही दिलाई है। पर हमारी दृष्टि संकुचित है ऐसे में हम ऐसी फिल्मों को भी नजर अंदाज कर जाते हैं, जो स्तरीय बनी होती है। पर हम पूर्वाग्रह से भी ग्रसित तब और हो जातें हैं जब हम पूर्वांचल के फिल्मों की बात करने को होते हैं। तथाकथित बुद्धिजीवी तो भोजपुरी फिल्मों को जैसे अपने आंगन में लाने से भी परहेज करते मिल जाएंगे।  इस विषम परिस्थितियों में भी कुछ जांबाज युवक गंभीर काम करने का दमखम रखते हैं। पर पर्याप्त प्रोत्साहन के अभाव में अपने टैलेंट को समेट कर बाजारवाद की ओर मुखातिब होने में ही अपनी भलाई समझते हैं। और बम्बई उन्हें आश्रय दाता के रूप में दिखने लगता है। वहां मन मसोस कर अपने कौशल को सम्पूर्ण उजागर न करते हुए काम करते हैं। एक आस तब भी उनके दिल में बनी रहती है कि ह...

तुम पुकार लो ... तुम्हारा इंतज़ार है

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 एक काशी ये भी... तुम पुकार लो ... तुम्हारा इंतज़ार है ये चिरपरिचित गीत तो याद ही होगा? और इसके गायक को..! जी.., सही.., हां वही हैं। हेमन्त कुमार। भारतीय सिने संगीत को कुछ और ऊँचाई तक ले जाने वाले महत्वपूर्ण संगीतकार व गायक। हेमंत मुखर्जी का जन्म काशी (वाराणसी) में उनके नाना के घर 16 जून 1920 में हुआ था, जो एक प्रमुख चिकित्सक थे।  कुछ दिन बाद वे कोलकाता चले गए। वहीं पर इंटरमीडिएट की परीक्षाएँ (12 वीं कक्षा) उत्तीर्ण करने के बाद, हेमंत इंजीनियरिंग करने जादवपुर के बंगाल तकनीकी संस्थान में शामिल हो गए । हालांकि, उन्होंने अपने पिता की आपत्ति के बावजूद संगीत में अपना करियर बनाने के लिए पढ़ाई छोड़ दी। उन्होंने कुछ समय के लिए साहित्य में हाथ आजमाया और देश नामक प्रतिष्ठित बंगाली पत्रिका में एक लघु कहानी प्रकाशित हुई। लेकिन 1930 के दशक के अंत तक वह पूरी तरह से संगीत के लिए प्रतिबद्ध हो गए। 1935 में ऑल इंडिया रेडियो के लिए अपना पहला गीत रिकॉर्ड किया। अपने शुरुआती जीवन में हेमंत प्रसिद्ध बंगाली गायक पंकज मल्लिक का अनुसरण करते थे। उन्होंने उस्ताद फैयाज खान के छात्र फणीभूषण बनर्जी से शास्त्र...

द लेसन

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   The Lesson हिंदी भाषा में कहें तो शिक्षा और बोली में कहें तो सीख। जहाँ शिक्षा, समाज की एक पीढ़ी द्वारा अपने से निचली पीढ़ी को अपने ज्ञान के हस्तांतरण का प्रयास है। इस विचार से शिक्षा एक संस्था के रूप में काम करती है, जो व्यक्ति विशेष को समाज से जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है तथा समाज की संस्कृति की निरंतरता को बनाए रखती है। बच्चा शिक्षा द्वारा समाज के आधारभूत नियमों, व्यवस्थाओं, समाज के प्रतिमानों एवं मूल्यों को सीखता है। वहीँ सीख या सीखना एक व्यापक सतत् एवं जीवन पर्यन्त चलनेवाली प्रक्रिया है। मनुष्य जन्म के उपरांत ही सीखना प्रारंभ कर देता है और जीवन भर कुछ न कुछ सीखता रहता है। धीरे-धीरे वह अपने को वातावरण से समायोजित करने का प्रयत्न करता है। इस समायोजन के दौरान वह अपने अनुभवों से अधिक लाभ उठाने का प्रयास करता है। इस प्रक्रिया को मनोविज्ञान में सीखना कहते हैं। जिस व्यक्ति में सीखने की जितनी अधिक शक्ति होती है, उतना ही उसके जीवन का विकास होता है। सीखने की प्रक्रिया में व्यक्ति अनेक क्रियाऐं एवं उपक्रियाऐं करता है। अतः सीखना किसी स्थिति के प्रति सक्रिय प्रतिक्रिया ह...

'बुद्ध पूर्णिमा के बहाने गेशे जम्पा की बात'

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आज बुद्ध पूर्णिमा भी है और चन्द्र ग्रहण भी। विश्व के वर्तमान हालात को भी इसी प्रतीक के माध्यम से समझ सकते हैं कि पूरे विश्व में एक वायरस ने ग्रहण लगा रखा है। जैसे ज्ञान पर माया का आवरण सदैव होता है। चन्द्र ग्रहण तो प्रकृति के नियम से छट भी जाएगा, पर माया आवरण को हटाने के लिए प्रयत्न करना होगा। इसी आवरण को भेद कर बुद्ध ने बुद्धत्व को पाया था। आज कोई भी बुद्धत्व को लालायित नहीं अपना कुछ भी त्यागने को तैयार नहीं। पर एक देश है जहां आज भी घर का एक लड़का भिक्षु बनना स्वीकारता है। वह जगह है तिब्बत। तिब्बत की बात क्यों! ये सोच रहे होंगे आप। पर मुझे लगता है आज भी सही मायने में बुद्ध की शिक्षा वहीं बसी हुई है। पर तिब्बत के हालात कुछ ऐसे हैं कि उसे बयां करना बड़े जिगर का काम है। बस एक राह सुझा सकता हूँ, यदि मंटो के 'टोबा टेक सिंह' को पढ़ सकते हैं, तो कुछ हद तक समझ जाएंगे। चीन उसपर ऐसी ज्यात्तियां बरपा रहा है, जो असहनीय हो चला है। वो तो बुद्ध के विचारों ने ही तिब्बत को इतनी शक्ति दे रखी है कि वह हिंसक प्रतिरोध न करके भी अपनी जमीन से चिपक हुआ है, नहीं तो कब का उखड़ गए होता। ये अहिंसक प्रवित्ति ...

मनुष्य सबसे क्रूर जानवर है-नीत्शे

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  Trailer   "दंश" का ग्लोबल प्रीमियर "मैवशैक" पर हुआ है! स्वीडन स्थित अंतर्राष्ट्रीय OTT (Over the Top)  Mavshack ने बनारस में बनी फिल्म "दंश" का ग्लोबल प्रीमियर किया है। बालमुकुंद त्रिपाठी द्वारा लिखित व निर्देशित फ़िल्म दंश अबतक आठ राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में दिखाई जा चुकी है। आपको बताते चले फिल्म त्रिपाठी के द्वारा ही रचित नाटक "डार्क सिटी" पर आधारित है, जिसका वह दर्जनों बार मंचन कर चुके हैं। जहांतक मंच की बात यदि करें तो इस नाटक की पृष्ठभूमि से क्रूरता के रंगमंचीय सिद्धान्त के तत्व की महक आती है और नाम मे ही अंधेरे की व्याप्ति। अंधेरे के क्रूरतम परिवेश में दम घुटते लोगों की कथा विस्तार को बिम्ब देने का प्रयास दिखता है। इस फिल्म में चार अलग-अलग कहानियाँ हैं - हॉरर किलिंग, आज की राजनीति, हिन्दू-मुस्लिम, बेरोजगारी।  जिनके माध्यम से समाज में फैली विसंगतियों को प्रस्तुत किया गया है। नीत्शे की क्रूरता की परिभाषा को परिमार्जित करते हुए आर्तो की अपनी परिभाषा यह घोषणा करती है कि सभी कलाएं अनुभव के रोमांच को फिर से बनाने के लिए जीवन ...

'अभिनय के लिए सही परिभाषा नहीं ढूंढ पा रहा हूँ-श्री उर्मिल कुमार थपलियाल"

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    उर्मिल सर से जब वर्धा में मिलना हुआ  अभिनय , शब्द में जादू है। सब करना चाहते हैं। करते है। कर रहे हैं। शेक्सपियर की जुबानी कहें तो 'जीवन एक रंगमंच है और हम सभी अपनी अपनी भूमिका अदा कर रहे हैं"। कुछ लोग अभिनय करते हुए प्रसिद्ध होना चाहते है। कुछ केवल आनन्द तो कुछ इसके माध्यम से जीवन और मृत्यु के रहस्यों तक को सुलझाने का विकल्प ढूंढने में प्रयासरत हैं। अभी अभी काशी के प्रख्यात कलाविद डॉ गौतम चटर्जी ने अपने ऑफिशियल यूट्यूब चैनल में भारत के जानेमाने रंग विद्वान श्री उर्मिल कुमार थपलियाल से लिये गए साक्षात्कार का एक लघु संस्करण प्रसारित किया है। जो एक अभिनेता के लिए महत्वपूर्ण है। यूं भी सही मायने में अभिनय विषय को लेकर बहुत कम ही चर्चा-परिचर्चा होती है। क्योंकि सभी करने में दिलचस्पी रखते हैं। सुनने-समझने-सीखने में समय व्यय करना जरूरी नहीं समझते। ऐसे में इस तरह की रसद एक अभिनेता को समृद्ध करेंगी। लगभग छः मिनट के इस फ़िल्म का आरंभ श्री उर्मिल कुमार थपलियाल अपने किताबों के संग्रह से एक पुस्तक निकलते हुए - सरीखे दृश्य से होता है [जैसे सत्यजीत रे साहब की चारुलता फ़िल्म में न...

"गॉड लव्स पाइप कि बाबा को बाबा पसन्द है"

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 'मद' एक व्याभिचारी भाव है। माफ करिये ये मैं नहीं कह रहा। ये बात लगभग ढाई हजार साल पहले के एक ग्रंथ में लिखा है। जाहिर है लिखने वाला ऋषि था। ऋषि दृष्टि पवित्र होती है और गहरी भी। इसीलिए तो भाव उन्होंने उन्चास देखें, जिनमें से एक मद है। मतलब उन्चास में एक। अब इतनों में उसे कोई कितना ही समय या ध्यान देता होगा। इसीलिए उन्होंने ऋषि ने स्थाई न कह कर व्याभिचारी कि संचारी कि चारी कि जो स्थिर न हो ऐसे भावों के संग कर दिया। पर ये भाव कुछ भिन्न प्रकृति का था। समय ज्यों ज्यों बीतता गया इसने अपना स्थान स्थाई भाव में परिवर्तित करता चला गया। Cut ... यानी ठहरिए महाराज। बाबा ... यानी महादेव। आपने क्या सोचा बाबा बोले तो... जी सही ही सोचा है। पर मैंने कहा न रुकिए कि उस मुद्दे पर पुनः लौटेंगे। अभी कुछ देर 'बाबा' पर विमर्श कर लेते हैं। बाबा यानी महादेव यानी काशी विश्वनाथ जो किसी भी स्थिति में काशी को छोड़ कर नहीं रह पाते। लोग तो यहां तक कहते हैं वो आम जनों का रूप धर कर काशी का फक्कड़ जीवन का घूम घूम कर आनंद लेते है। उनके इस काशी मोह का उल्लेख किसी भी पुराण में हो तो जरा बताइयेगा कि उक्त माया...