पूर्वांचल के ओजपूर्ण निर्देशक-अमर दुबे

 


बात जब फिल्मों की ही हो तो मुख्यधारा के फिल्मों की ही होती है। मतलब हिंदी फिल्में। हिंदी भी कहना गलत होगा। कहना होगा बम्बईया फिल्में। अखबार उठाकर देखेंगे या टेलीविजन तो यही बात आपको भी नजर आ जाएंगी। गैर हिंदी या क्षेत्रीय सिनेमा नदारद मिलेंगे। जबकि विश्व सिनेमा के प्रतिस्पर्धा में भारतीय सिनेमा को दर्ज क्षेत्रीय सिनेमा ने ही दिलाई है। पर हमारी दृष्टि संकुचित है ऐसे में हम ऐसी फिल्मों को भी नजर अंदाज कर जाते हैं, जो स्तरीय बनी होती है। पर हम पूर्वाग्रह से भी ग्रसित तब और हो जातें हैं जब हम पूर्वांचल के फिल्मों की बात करने को होते हैं। तथाकथित बुद्धिजीवी तो भोजपुरी फिल्मों को जैसे अपने आंगन में लाने से भी परहेज करते मिल जाएंगे। 


इस विषम परिस्थितियों में भी कुछ जांबाज युवक गंभीर काम करने का दमखम रखते हैं। पर पर्याप्त प्रोत्साहन के अभाव में अपने टैलेंट को समेट कर बाजारवाद की ओर मुखातिब होने में ही अपनी भलाई समझते हैं। और बम्बई उन्हें आश्रय दाता के रूप में दिखने लगता है। वहां मन मसोस कर अपने कौशल को सम्पूर्ण उजागर न करते हुए काम करते हैं। एक आस तब भी उनके दिल में बनी रहती है कि हो न हो एक न एक दिन लोग मेरे काम को देखेंगे और मुझपर भरोसा दिखाएंगे कि मैं भी अपने अनुसार ऐसी फिल्मों को बना सकूंगा जो विश्व में एक लकीर खींच सके। 


ऐसे ही एक नव युवक और ऊर्जा से भरपूर फ़िल्म निर्देशक से हालफिलहाल मुलाकात हुई। बनारस के ही दो प्रतिभावान अभिनेताओं में उमेश भाटिया और नवीन चंद्रा इस मुलाकात का माध्यम बने। मैं उनका हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ कि उन्होंने ऐसे एक शक़्स से मिलवाया। बातचीत का सिलसिला जब आगे बढ़ा तो पता चला उन्होंने भी उसी विद्यापीठ से नाट्य में स्नातक की पढ़ाई की है, जहां से हमने पूरी की। इस लिहाज से मैं उनका सीनियर हुआ, पर कृतित्व की दृष्टि से उनका काम मुझसे कहीं ज्यादा है। वो लगातार एक के बाद एक फिल्मों में सक्रिय हैं। एक निर्देशक के तौर पर लगातार काम कर रहे हैं। 


उनके पास मौलिक विचार अकूत है। पर उन्हें वह माहौल नहीं मिल पा रहा है। जैसा वो करना चाहते हैं। जाहिर है कलाकार अपने कला में ही जीवित रहना चाहता है। साथ ही सच्चाई यह है कि पैसा भी जरूरी है। पर उनमें अब भी कुछ अलग करने की तमन्ना है। और उनमें कुछ विशेष करने की क्षमता भी है। इसे आंकने के लिए उनकी एक फ़िल्म देखने भर से आप मेरी बात से सहमत हो जाएंगे। और ये फ़िल्म उन्होंने अपने कैरियर के आरंभिक दौर में ही बना ली थी। बिना आधारभूत संसाधनों से ही। फ़िल्म का कंटेंट बहुत ही संवेदनशील है। और इसे उन्होंने बहुत ही सादगी के साथ तो बनाया ही साथ ही पूरी फिल्म देखने के वाद एक असर छोड़ने में भी कामयाब रहे हैं।


उस युवा और प्रतिभाशाली निर्देशक का नाम अमर दुबे है। और उनके द्वारा बनाये गए फ़िल्म का लिंक मैं दे रहा हूँ। फ़िल्म का मुख्य विषय 'बालश्रम' है। जो समाज में एक कलंक की तरह अब भी काबिज है। बाल श्रम हमारे देश और समाज के लिए बहुत ही गम्भीर विषय है। आज समय आ गया है कि हमें इस विषय पर बात करने के साथ-साथ अपनी नैतिक जिम्मेदारियाँ भी समझनी होगी। बाल मज़दूरी को जड़ से उखाड़ फेंकना हमारे देश के लिए आज एक चुनौती बन चुका है क्योंकि बच्चों के माता-पिता ही बच्चों से कार्य करवाने लगे है। आज हमारे देश में किसी बच्चे को कठिन कार्य करते हुए देखना आम बात हो गई है। 


बाल मज़दूरी को बड़े लोगों और माफियाओं ने व्यापार बना लिया है। जिसके कारण दिन-प्रतिदिन हमारे देश में बाल श्रम बढ़ता जा रहा है और बच्चों का बचपन खराब हो रहा है। इस से बच्चों का भविष्य तो खराब होता ही है, साथ में देश में गरीबी फैलती है और देश के विकास में बाधाएँ आती हैं। 


बाल श्रम भारत के साथ-साथ सभी देशों में गैर कानूनी है। बाल श्रम हमारे समाज के लिए एक कलंक बन चुका है। बाल मज़दूरी की समस्या समय के साथ-साथ बहुत उग्र रूप लेती जा रही है। इस समस्या को अगर समय रहते जड़ से मिटाया नहीं गया, तो इससे पूरे देश का भविष्य संकट में आ सकता है।


बस एक बार इस फ़िल्म को देखिए और विचार करिये की  पूर्वांचल के इन होनहार कलाकरों को हम क्या और कैसे मदद करें कि ये भी हमें बांगला, मराठी या दक्षिण भारत की स्तरीय और कला फिल्मों की श्रेणी में ला खड़ा करें।


https://youtu.be/U90rGXc13IE 



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