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Showing posts from 2015

कुछ कविताएं

चट्टानी कब्रगाह पर प्रेम-कुटज खिले-तो-खिले कैसे जिन्दगानी मुझसे एक फासले पर तरस रही मैं जिन्दगी को तड़प रहा चलो जिस्म को  वफ़ा-ए-हद तक मना भी लू दिल है नादान चटक ही जा रहा। ....... कल्पवृक्ष जहाँ मिले समझो अवसाद अवसान हुआ सूरजने प्रतिभा सौपी चाँदने सौम्यता-सम्भार सौपा ........ जिधर भी देखु इक आस बधती कुछ देर ठहरु इक मोह बधती सजदे में झुकु इक फूल खिलती इक तितली उडती इक आकाश बनता .. ......... दोनोंके दरमियाँ कुछ सौहार्दके फासले है मिटा-दो मिलने दो बेबाक बेलौस बे-झिझक ......... मैं वर्षो से  एक ही प्रश्न को नए नए पैंतरो से हल करने में जुटा हूँ.. ......... कितना फ़ैल सकता था कितना सिमट सा गया हूँ । । ......... चाहता हूँ मेरे आंसू गिरे गिरे उसकी सुखी रोटी पर स्वाद नमक का मिले उसे आँखों के आंसू थिर जाये होठो के कोर थिर-थिराए... ....... रक्खा है  संजो कर  उनकी सारी  यादों को  न जाने कब   वो मांग बैठे  संग बिताये  अंतरंग...

भारतीय क्रन्तिकारी नाटक

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भारतीय क्रन्तिकारी नाटक   नीलदर्पण नीलदर्पण   बांग्ला  का प्रसिद्ध  नाटक  है जिसके रचयिता  दीनबन्धु मित्र  हैं। इसकी रचना १८५८-५९ में हुई। यह बंगाल में  नील विद्रोह  का अन्दोलन का कारण बना। यह बंगाली  रंगमंच  के विकास का अग्रदूत भी बना।  कोलकाता  के 'नेशनल थिएटर' में सन् १८७२ में खेला गया यह पहला व्यावसायिक  नाटक  था। बांग्ला नाटकार दीनबन्धु मित्र का 1860 में प्रकाशित नाटक ‘नील दर्पण’ एक सशक्त नाट्य कृति ही नहीं, एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज भी है। इस नाटक में बंगाल में नील की खेती करने वाले अँग्रेजों द्वारा शोषण, भारतीय किसानों के ऊपर अमानुषिक अत्याचारों की बड़ी भावपूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। नाटक की बंगाली समाज और अँग्रेज शासक दोनों में अपने-अपने ढंग से तीव्र प्रतिक्रिया हुई। यही नहीं, इस नाटक को पढ़कर उस जमाने की चर्च मिशनरी सोसाइटी के पादरी रेवरेंड जेम्स लौंग बहुत द्रवित हुए है और उन्होंने नीलकरों द्वारा शोषण के प्रतिवादस्वरूप नाटक का अनुवाद अँग्रेजी में प्रकाशित किया तो उन पर अँग्रेजी सरकार द...

मुरीद

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मुरीद    पप्पू आज कई दिनों से परेशान है। अलसुबह जिस नित्यकर्म को उसने अपने जीवन में बड़ी मुश्किल से जोड़ा था। महीने भर में ही टूटने को है। पर पप्पू दृढ प्रतिज्ञ है। पन्द्रह दिनों से लगातार नियत समय पर भोलू चाचा की दुकान आ जाता है। गांव में परचून की दुकान तो पांच-छः है; पर चाचा की बात ही निराली है। ग्राम प्रधान होने के नाते लोगों की भीड़ लगती है -  ऐसा नहीं है। सुबह-सुबह का अख़बार लोग यहीं पढ़ना पसंद करते है। देश-दुनिया की खबरों से वाकिफ होते है। इधर पिछले कई दिनों से लोगों के हाथ निराशा लग रही है। अख़बार आता तो है, पर कोई भोलू चाचा की नज़र बचाकर ले जाता है। अब चाचा दुकान सम्हाले या अख़बार !  पप्पू अनपढ़ है। सभी समझते है - उसे अख़बार में क्या देखना पसंद है। किशोर अवस्था में मन चंचल होना स्वभाविक है। और इन्हे प्रोत्साहित करने में ही अख़बार को अपना हित नज़र आता है। पप्पू के आते ही लोग अपने-अपने हाथों में थामे अख़बार की पृष्ठों को एकत्रित कर उसे दे देते है। वह भी अपनी पसंद की विषय पर नज़रें बिछाय थोड़ी देर मौन रहता है। इस कृत्य पर न जाने किसकी नज़र पड़ गई।  पप्पू ग...

আচার্য ভরত প্রস্তাবিত অভিনয়রীতি

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আচার্য ভরত মূনি কৃত  "নাট্যশাস্ত্র" প্রত্যেক শিল্পীর জন্য এক বিশেষ প্রয়োনীয় গ্রন্থ। যাকে আমরা শিল্পানুরাগিদের গীতা বা বাইবেল বলতে পারি। নাট্যশাস্ত্র শিল্পের এমন এক আকর গ্রন্থ ; যার মধ্যে প্রতিটি শিল্পের সমস্ত দুর্লভ তত্ত্ব বিদ্যমান। নাট্য কে তিলোত্তমা শিল্প-ও বলা হয়ে, যার কেন্দ্রে অভিনয়। যাকে বহন করে অভিনেতা, বিভিন্ন অভিনয়রীতি বা পদ্ধতির মাধ্যমে।     অভিনয়রীতি বা পদ্ধতি বা মেথড নিয়ে ভারতের বাইরে যে ভাবে মাথা ঘামানো বা আগ্রহ দেখান হয়েছে; সে ভাবে আধুনিক ভারতে দেখা যায়ে না। প্রফেসর গৌতম চট্টোপাধ্যায় বলেন "নাট্যশাস্ত্র কে একটু গভীর ভাবে পড়লেই আচার্য ভরত প্রস্তাবিত অভিনয়রীতি গুলি ধরা পড়ে; যাকে আধুনিক ভাষায় একটিং মেথড বলতে পারি। যার রচনা আজ থেকে প্রায় আড়াই বছর আগে হয়েছিল। যাকে কখনই আমরা সঠিক ভাবে পড়িনি বা ধরতেই পারিনি।"     মূল গ্রন্থের যে তিনটি প্রমানিত সংস্করণ আমরা পাই তাতে স্পষ্ট ভাবে একটিং মেথড-এর নির্দেশনা নেই। মানে নাট্যশাস্ত্রের ছতত্রিস অধ্যায়ের মধ্যে কোনটাতেই বলা হয়েনি যে অভিনেতাদের জন্য এই রইলো অভিনয়রীতি...

Ashok Sagar Bhagat in varanasi

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प्रकाश के मंद होने के साथ-साथ नाटक के अंतिम दृश्य का कृष्णगहवर में विलय। हॉल स्तब्ध। कम्प्लीट एफेक्ट। नाट्य मंचन की सार्थकता पर मुहर। उक्त सुखदानुभूति का सपना हर रंगकर्मी आजीवन गुनता रहता है। सन २०१० में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्वतंत्रता भवन में "ललदद " नाट्य मंचन के दौरान अभिनेत्री मीता वशिष्ठ भी ऐसी अनुभूति से मुखातिब हुई। काश्मीरी साध्वी लल्लेश्वरी के जीवन वृत्त को आवृत्त उन्होंने अपने शसख्त अभिनय से किया। संतों की नगरी काशी ने काश्मीरी फलसफों को सिरोधार्य किया, साथ ही अभिनेत्री को बधाई हेतु मंच पर उमड़ पड़े। "ललदद " प्रस्तुति को सफल बनाने में एक शक्श को उतना ही श्रेय जाता है, जितना सुश्री वशिष्ठ को; वो है भारत के जानेमाने लाइट डिज़ाइनर व प्रक्षेपक श्री अशोक सागर भगत । प्रस्तुत है उनसे हुए संवाद के कुछ अंश - - ऐसी परिस्थिति को सर आप कैसे लेते है ? - प्रकाश उपकरणों को समेटना बीच में ही रोककर " जी कैसी परिस्थिति को ! - दर्शक मीता जी को घेरे हुए है और आप … मतलब आप भी तो एक परफ़ॉर्मर है … ? - (हंसकर) समझा … देखिये इंसान की फितरत दो तरह से...