आज की फ़िल्म में आज का जीवन-मृणाल सेन
[रिज़र्व बैंक कर्मचारी संघ ने '74 के शुरुआती समय में एक परिचर्चा आयोजित की। विषय: 'आज की फ़िल्म में आज का जीवन'। वक्ता: पशुपति चट्टोपाध्याय, बिमल भौमिक, धृतिमान चट्टोपाध्याय, शमिक बंद्योपाध्याय और मृणाल सेन। सबसे पहले वक्ताओं ने अपना वक्तव्य रखा। फिर दर्शकों के गरमागरम, उत्तेजक और धधकते सवालों का जवाब दिलचस्पी के साथ दिए। पशुपति चटर्जी, बिमल भौमिक और धृतिमान चटर्जी के बाद मृणाल सेन ने अपना पक्ष रखा। जो चित्रबिक्षण पत्रिका के मार्च-अप्रैल '84 और मई-जून '84 अंक में प्रकाशित हुआ था
हममें से तीन ने परिचर्चा का एक घण्टा अपने वक्तयों को रखने में गुजार दिया, ऐसे में बाकी बचे हम दोनों अगर कुछ ना भी कहें तो चलेगा। प्रत्येक को सात मिनट कहना था। इसके अलावा, एक और समस्या है, मैंने यहां आकर जो कुछ भी कहने के लिए संजोया था, उनमें से दो-चार पॉइंट पशुपतिबाबू ने पहले ही कह दिया। उसके बाद दो और लोगों ने कहा, जिनमें बहुत सी चीजें कवर हो गईं। शमिक ने अभी तक कुछ नहीं कहा है, शमिक ने कहा होता तो कहने को कुछ रह ही नहीं जाता।
खैर, कुछ कहना ही है सो कह रहा हूँ। लेकिन निश्चित नियमों के संदर्भ में कुछ भी कहना संभव नहीं है। प्रश्नों के आने पर उत्तर देने में मजा आता है, पर हम नहीं जानते कि प्रश्नोतर काल में कितना समय मिल पायेगा। लेकिन एक बात है कि आज के विषयवस्तु का दायरा इतना व्यापक है कि आप इसे अपनी इच्छानुसार व्यवस्थित कर कह सकते हैं। धृतिमान ने अभी अभी जो कहा वह फ़िल्म निर्माण के क़ायदे कानून के बारे में है; पकड़ने वाली बात है - फ़िल्म निर्माण के समय में कितना पेशेवर होना चाहिए, कितना नहीं होना चाहिए, हमें उस विषय में निश्चित तौर पर सोचना चाहिए। जो फिल्में बनाते है और जो फिल्में देखते हैं सभी के लिए यह एक बड़ी समस्या है, लेकिन हो सकता है कि आज की चर्चा में आप जो कहना या करना चाहते हैं, वह है-आज की फिल्म का समाजशास्त्र। आज की फिल्मों में निहित socidogy इस परिचर्चा में यहीं ठहरा रहे शायद आपलोग ऐसा ही चाहते हैं।
उत्तम
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